पृष्ठ:भ्रमरगीत-सार.djvu/२०६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
१२९
भ्रमरगीत-सार
 

जानति नाहिं कौन गुन या तन जातें सबै डरे।
सूरदास सकुचन श्रीपति के सुभटन बल बिसरे॥३३०॥


राग धनाश्री

माधव सों न बनै मुख मोरे।
जिन्ह नयनन्ह ससि स्याम बिलोक्यो ते क्यों जात तरनि[१] सों जोरे।
मुनि-मन-रमन ये जोग, कमठ तन मँदर-भार सहै क्यों[२], ओ रे!
तरुनी-हृदय-कुमुद के बँधन कुंजर क्यों न रहत बिनु तोरे॥
नीलांबर-घनस्याम नीलमनि पैयत है क्यों धूम के भोरे[३]
सूर भृँग कमलन के बिरही चँपक मन लागत कहुँ थोरे॥३३१॥


राग जैतश्री

और सकल अँगन तें, ऊधो! अँखियाँ अधिक दुखारी।
अतिहि पिराति, सिराति न कबहूँ, बहुत जतन करि हारी॥
एकटक रहति, निमेष न लावति, बिथा बिकल भइ भारी।
भरि गइँ विरह-बाय-बिनु दरसन, चितवति रहति उघारी॥
रे रे अलि! गुरु[४] ज्ञान-सलाकहि क्यों सहि सकति तुम्हारी।
सूर सुअंजन आनु रूप-रस आरति हरन हमारी॥३३२॥


राग कान्हरो

भूलति हौ कत मीठी बातन।
ये अलि हैं उनहीं के संगी, चंचल चित्त, साँवरे गातन॥
वै मुरली धुनि कै जग मोहत, इनकी गुंज सुमन-मन-पातन[५]
वै उठि आन आन मन रंजत, ये उड़ि अनत रंग-रस-रातन॥


  1. तरनि=सूर्य।
  2. क्यों=कैसे।
  3. भोरे=धोखे में, धोखा खाकर।
  4. गुरु=भारी।
  5. मन-पातन=फूलों का मन ढालने अर्थात् आकर्षित करनेवाले।