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भ्रमरगीत-सार
 

भलेहि मिले बसुदेव देवकी जननि जनक निज कुटुँब घनेरो।
केहि अवलंब रहैं हम ऊधो! देखि दुःख नँद-जसुमति केरो॥
तुम बिनु को अनाथ-प्रतिपालन, जाजरि[१] नाव कुसँग सबेरो[२]
गए[३] सिंधु को पार उतारै, अब यह सूर थक्यो ब्रज-बेरो[४]॥३३६॥


मानौ ढरे एक ही साँचे।
नखसिख कमल-नयन की सोभा एक भृगुलता-बाँचे[५]
दारुजात[६] कैसे गुन इनमें, ऊपर अन्तर स्याम।
हमको धूम-गयन्द[७] बताबत, बचन कहत निष्काम॥
ये सब असित देह धरे जेते ऐसेई, सखि! जानि।
सूर एक तें एक आगरे वा मथुरा की खानि॥३३७॥


राग सोरठ

बातैं कहत सयाने की सी।
कपट तिहारो प्रगट देखियत ज्यों जल नाए सीसी॥
हौं तो कहत तिहारे हित की काहे को तू भरमत।
हमहूं मया तिहारी हैं कछु, थोरी सी है मैमत[८]
छाय बसाय गए सुफलकसुत नेकहु लागी बार न।
सूर कृपा करि आए ऊधो तापै ढेवा[९] डारन॥३३८॥


  1. जाजरि=जर्जर, जीर्ण।
  2. सबेरो=सब।
  3. गए=कृष्ण के चले जाने पर।
  4. बेरो=बेड़ा।
  5. भृगुलता बाँचे=भृगु की लात का चिह्न छोड़कर।
  6. दारुजात=भौरा।
  7. धूम गयंद=धूएँ का हाथी, धोखे की वस्तु अर्थात् निर्गुण ब्रह्म।
  8. मैमत=ममता, स्नेह।
  9. ढेवा=खेप; गीली मिट्टी का ढेर जो दीवार उठाने के लिए डाला जाता है।

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