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भ्रमरगीत-सार
१३२
 


राग सारंग

आए नँदनन्दन के नेव[१]
गोकुल आय जोग बिस्तार्‌यो, भली तुम्हारी टेव॥
जब बृन्दाबन रास रच्यो हरि तबहि कहाँ तू हेव[२]
अब जुवतिन को जोग सिखावत, भस्म अधारी सेव॥
हम लगि तुम क्यों यह मत ठान्यो ज्यों जोगिन को भोग[३]
सूरदास प्रभु सुनत अधिक दुख, आतुर बिरह-बियोग॥३३९॥


मनौ दोउ एकहि मते भए।
ऊधो अरु अक्रूर बधिक दोउ ब्रज आखेट ठए[४]
बचन-पास बाँधे माधव-मृग, उनरत[५] घालि लए।
इनहीं हती मृगी-गोपीजन सायक-ज्ञान हए॥
बिरह-ताप को दवा देखियत चहुं दिसि लाय दए।
अब धौं कहा कियो चाहत हैं, सोचत नाहिंन ए॥
परमारथी ज्ञान[६] उपदेसत बिरहिन प्रेम-रए[७]
कैसे जियहि स्याम बिनु सूर चुम्बक मेघ गए॥३४०॥


या ब्रज सगुन-दीप[८] परगास्यो।
सुनि ऊधो! भृकुटी त्रिबेदि[९] तर निसिदिन प्रगट अभास्यो॥
सब के उर-सरवनि[१०] सनेह भरि सुमन तिली को बास्यो।


  1. नेव=नायब, मंत्री।
  2. हेव=ह्यो, तू था।
  3. जोगिन को भोग=जैसे योगियों के लिए भोग वैसे ही हमारे लिए योग।
  4. ठए=ठाना।
  5. उनरत=उछलते हुए।
  6. परमारथी ज्ञान=पारमार्थिक ज्ञान, ब्रह्मज्ञान।
  7. रए=रंगे।
  8. सगुन-दीप=सगुण ज्योति को जगानेवाला दीपक।
  9. त्रिवेदि=त्रिपाई, चौकी
  10. उर-सरवनि=हृदय रूपी शराब या पात्र।