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भ्रमरगीत-सार
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राग सारंग
मनौ दोउ एकहि मते भए।
ऊधो अरु अक्रूर बधिक दोउ ब्रज आखेट ठए[४]॥
बचन-पास बाँधे माधव-मृग, उनरत[५] घालि लए।
इनहीं हती मृगी-गोपीजन सायक-ज्ञान हए॥
बिरह-ताप को दवा देखियत चहुं दिसि लाय दए।
अब धौं कहा कियो चाहत हैं, सोचत नाहिंन ए॥
परमारथी ज्ञान[६] उपदेसत बिरहिन प्रेम-रए[७]।
कैसे जियहि स्याम बिनु सूर चुम्बक मेघ गए॥३४०॥