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भ्रमरगीत-सार
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राग सारंग

कहा भयो हरि मथुरा गए।
अब अलि! हरि कैसे सुख पावत तन द्वै भाँति भए[१]
यहाँ अटक अति प्रेम पुरातन, ह्वाँ अति नेह नए।
ह्वाँ सुनियत नृप-वेष, यहाँ दिन[२] देखियत बेनु लए॥
कहा हाथ पर्‌यो सठ अक्रूरहिं वह ठग-ठाट ठए।
अब क्यों कान्ह रहत गोकुल बिनु जोगन के सिखए॥
राजा राज करौ अपने घर माथे छत्र दए।
चिरंजीव रहौ, सूर नंदसुत, जीजत मुख चितए॥३५८॥

राग बिलावल

तुम्हारी प्रीति, ऊधो! पूरब जनम की अब तो भए मेरे तनहु के गरजी।
बहुत दिनन तें बिरमि रहे हौ, संग तें बिछोहि हमहिं गए बरजी॥
जा दिन तें तुम प्रीति करी[३] ही घटति न, बढ़ति तूल[४] लेहु नरजी[५]
सूरदास प्रभु तुम्हरे मिलन बिनु तन भयो ब्योंत, बिरह भयो दरजी॥३५९॥

राग मलार

गोपालहि लै आवहू मनाय।
अब की बेर कैसेहु करि, ऊधो! करि छल बल गहि पाय॥
दीजौ उनहिं सुसारि उरहनो संधि संधि समुझाय।
जिनहिं छाँड़ि बढ़िया[६] महँ आए ते विकल भए जदुराय॥
तुम सों कहा कहौं हो मधुकर! बातैं बहुत बनाय।
बहियाँ पकरि सूर के प्रभु की, नंद की सौंह दिवाय॥३६०॥


  1. द्वै भाँति भए=दो रूपों का एक साथ निर्वाह करना पड़ता है।
  2. दिन=प्रतिदिन, सदा।
  3. करी ही=की थी।
  4. तूल=लंबाई।
  5. नरजि लेहु=नाप लो।
  6. बढ़िया=बाढ़, विरह-प्रवाह की।