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भ्रमरगीत-सार
 


यद्यपि मन समुझावत लोग।
सूल होत नवनीत देखिकै मोहन के मुख-जोग॥
प्रात-समय उठि माखन-रोटी को बिन मांगे दैहै?
को मेरे बालक कुँवर कान्ह को छन छन आगो लैहै?
कहियो जाय पथिक! घर आवैं राम स्याम दोउ भैया।
सूर वहाँ कत होत दुखारी जिनके मो सी मैया॥३७६॥


राग सारंग

जो पै राखति हौ पहिंचानि।
तौ बारेक मेरे मोहन को मोहिं देहु दिखाई आनि॥
तुम रानी बसुदेवगिरहिनी हम अहीर ब्रजबासी।
पठै देहु मेरो लाल लड़ैतो बारों ऐसी हाँसी[१]
भली करी कंसादिक मारे अवसर-काज कियो।
अब इन गैयन कौन चरावै भरि भरि लेत हियो॥
खान, पान, परिधान, राजसुख केतोउ लाड़ लड़ावै।
तदपि सूर मेरो यह बालक माखन ही सचु[२] पावै॥३७७॥


कुब्जा-संदेश
राग सोरठ

मो पै काहे को झुकति[३] ब्रजनारी?
काहू के भाग मों साझो नाहिंन, हरि की कृपा नियारी॥
फलन माँझ जैसे करुई तूमरि रहति जो घूरे डारी।
हाथ परी जब गुनी जनन के बाजति राग दुलारी॥


  1. बारों ऐसी हाँसी=ऐसी हँसी चूल्हे में जाय।
  2. सचु=सुख।
  3. झुकति=टूटती हो, कोप करती हो।

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