जोग-समाधि जोति चित लावै। परमानंद परमपद पावै॥
नवकिसोर को जबहिं निहारैं। कोटि ज्योति वा छबि पै वारैं॥
सजल मेघ घनस्याम-सरीर। रूप ठगी हलधर के बीर[१]॥
सिर श्रीखंड[२], कुंडल, बनमाल। क्यों बिसरैं वै नयन बिसाल?
मृगमद[३] तिलक अलक घुँघरारे। उन मोहन मन हरे हमारे॥
भृकुटी बिकट, नासिका राजै। अरुन अधर मुरली कल बाजै॥
दाड़िम-दसन-दमक-दुति सोहै। मृदु मुसकानि मदन-मन मोहै॥
चारु चिबुक, उर पर गजमोती। दूरि करत उडुगन की जोती॥
कंकन, किंकिन, पदिक बिराजै। चलत चरन कल नूपुर बाजै॥
बन की धातु[४] चित्र तनु किये। वह छबि चुभि जु रही हम हिये॥
पीत बसन छबि बरनि न जाई। नखसिख सुंदर कुंवर कन्हाई॥
रूपरासि ग्वालन को संगी। कब देखैं वह रूप त्रिभंगी॥
जो तुम हित की बात सुनावौ। मदनगोपालहि क्यों न मिलावौ?
उद्धव-वचन
ताहि भजहु किन सबै सयानी? खोजत जाहि महामुनि ज्ञानी॥
जाके रूप-रेख कछु नाहीं। नयन मूँदि चितवहु चित माहीं॥
हृदय-कमल में जोति बिराजै। अनहद नाद निरंतर बाजै॥
इड़ा पिंगला सुखमन नारी[५]। सून्य सहज में बसैं मुरारी॥
मात पिता नहिं दारा भाई। जल थल घट घट रहे समाई॥
यहि प्रकार भव दुस्तर तरिहौ। जोग-पंथ क्रम क्रम अनुसरिहौ॥
गोपी-वचन
यह मधुकर! मुख मूँदहु जाई। हमरे चित बित[६] हरि यदुराई॥