पृष्ठ:भ्रमरगीत-सार.djvu/२३३

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बुझी। अंतर-गति=हृदय के भीतर। सुचित=स्वस्थ होकर। कमल=योगियों के षट्चक्र जो कमल के रूप में माने जाते हैं। [१६९] लाइ=मन लगाकर। सुमति मति=अच्छी बुद्धि। पै=निश्चय। [१७०] गात=गाते हुए। सुनात=सुनाते थे। परसात=छाई है। [१७२] सिंघी=सींग का, बाजा। [१७३] लहनौ=प्राप्य। बर=दूल्हा, पति, प्रिय। सँघाती=साथी, सखा। [१७५] सरै=(सूर्य के रथ की ओर) जाता है, उसे प्राप्त करता है। [१७६] बल्लभी=प्रेमिका। मधुर=जो मीठी बोली बोलनेवाले हैं। बृक=भेड़िया। बच्छ=वत्स, बछड़े। असन=भोजन। बसन=वस्त्र। सत=शत, सैकड़ों। [१७७] बरस=बर्षा करता है। कर॰=हाथ में कड़ा और दर्पण लेकर (कड़ा ढीला पड़ गया है। दर्पण में मुख विवर्ण दिखाई पड़ता है)। एतो मान=इतना अधिक कष्ट सहने पर भी। [१७८] सहियो=सहना। मकरध्वज=काम। बहियो=अश्रु-प्रवाह के कारण। [१७९] पय=जल। पय सों=पानी से भी आग लग रही है। हा हरि॰=‘हा हरि, हा हरि’ जो कहती हैं उसी मन्त्र के पढ़ने के कारण इस आग में जलकर भस्म नहीं होतीं। [१८०] गहरु=देर, बिलंब। [१८१] कहा बनै हैं=क्या बात गढ़ लेंगें। अब हम॰=हम चुपचाप वहां पत्र लिख देंगी कि ये तो गोकुल के अहीर हैं, वह पत्र उन्हें मिलेगा भी नहीं। [१८२] रूपहरी=हरि का रूप, सारूप्य मुक्ति। सुक=शुकदेव। स्यामा=युवती स्त्री। [१८४] भनै=कहे। कह॰=क्यों उन कानों में कंकड़ी की चोट करते हो। रंग चुनै=प्रत्न करने पर भी। [१८६] बकी=पूतना। दोषन=दोष अर्थात् विषमय हो जाने से। तृनाव्रत=तृणावर्त। केसी=केशी नाम का दैत्य। [१८७] घाए=घात, चोट। कहि॰=कहना पड़ा। [१८८] रसाल=रसमय, कर्णसुखद। तरनि॰=सिर का तिलक सूर्य की भांति दाहक है। भुवाल=भूपाल, राजा। [१८९] बहिबी=निर्वाह करना। [१९०] दासनिदासि=दासानुदासी, दासों की दासी। [१९१] चेत॰=बेसुध अवस्था। रेती=बालू का मैदान। [१९३] अव-