पृष्ठ:भ्रमरगीत-सार.djvu/२७

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(ख) बूझत स्याम, कौन तू, गोरी!
"कहाँ रहति, काकी तू बेटी? देखी नाहिं कहुँ ब्रज खोरी"॥
"काहे कों हम ब्रज तन आवति? खेलति रहति आपनी पौरी।
सुनति रहति श्रवनन नँद-ढोटा करत रहत माखन-दधि चोरी"॥
"तुम्हरी कहा चोरि हम लैहैं? खेलन चलौ संग मिलि जोरी"।
सूरदास प्रभु रसिक-सिरोमनि बातन भुरइ राधिका भोरी"॥

इस खेल ही खेल में इतनी बड़ी बात पैदा हो गई है जिसे प्रेम कहते हैं। प्रेम का आरंभ उभय पक्ष में सम है। आगे चलकर कृष्ण के मथुरा चले जाने पर उसमें कुछ विषमता दिखाई पड़ती है। कृष्ण यद्यपि गोपियोँ को भूले नहीं हैं, उद्धव के मुख से उनका वृत्तांत सुनकर वे आँखोँ में आँसू भर लेते हैं, पर गोपियोँ ने जैसा वेदनापूर्ण उपालंभ दिया है उससे अनुराग की कमी ही व्यंजित होती है।

पहले कहा जा चुका है कि श्रृंगार और वात्सल्य के क्षेत्र में सूर की समता को और कोई कवि नहीं पहुँचा है। श्रृंगार के संयोग और वियोग दोनोँ पक्षोँ का इतना प्रचुर विस्तार और किसी कवि में नहीं मिलता। वृंदावन में कृष्ण और गोपियोँ का संपूर्ण जीवन क्रीड़ामय है और वह सम्पूर्ण क्रीड़ा संयोगपक्ष है। उसके अन्तर्गत विभावोँ की परिपूर्णता कृष्ण और राधा के अंग-प्रत्यंग की शोभा के अत्यन्त प्रचुर और चमत्कार पूर्ण वर्णन में तथा वृंदावन के करील-कुंजों, लोनी लताओं, हरे भरे कछारों, खिली हुई चाँदनी, कोकिल-कूजन आदि में देखी जाती है। अनुभावोँ और संचारियोंँ का इतना बाहुल्य और कहाँ मिलेगा? सारांश यह कि संयोग-सुख के जितने प्रकार के क्रीड़ा-विधान हो सकते हैं वे सब सूर ने लाकर इकट्ठे कर दिए हैं। यहाँ