पृष्ठ:भ्रमरगीत-सार.djvu/४२

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जिस प्रकार का प्रस्तुत। व्यापार समष्टि के समन्वय में कवि की सहृदयता का जिस पूर्णता के साथ हमें दर्शन होता है उस पूर्णता के साथ वस्तु, क्रिया आदि के पृथक् पृथक् समन्वय में नहीं। इसी से सुंदर अन्योक्तियाँ इतनी मर्मस्पशिणी होती हैं। चुना हुआ अप्रस्तुत व्यापार जितना ही प्राकृतिक होगा––जितना ही अधिक मनुष्य जाति के आदिम जीवन में सुलभ दृश्यों के अंतर्गत होगा––उतना ही रमणीय और अनुरंजनकारी होगा। सूरदासजी ने कई स्थलों पर अपनी कल्पना के बल से प्रस्तुत प्रसंग के मेल में अत्यंत मनोरम व्यापार-समष्टि की योजना की है। कोई गोपिका या राधा स्वप्न में श्रीकृष्ण के दर्शनों का सुख प्राप्त कर रही थी कि उसकी नींद उचट गई। इस व्यापार के मेल में कैसा प्रकृति-व्यापी और गूढ़ व्यापार सूर ने रखा है, देखिए––

हमको, सपनेहू में सोच।
जा दिन तें बिछुरे नंदनंदन ता दिन तें यह पोच॥
मनौ गोपाल आए मेरे घर, हँसि करि भुजा गही।
कहा करौं वैरिनि भइ निंदिया, निमिष न और रही॥
ज्यों चकई प्रतिबिंब देखि कै आनंदी पिय जानि।
सूर पवन मिलि निठुर विधाता चपल कियो जल आनि॥

स्वप्न में अपने ही मानस में किसी का रूप देखने और जल में अपना ही प्रतिबिंब देखने का कैसा गूढ़ और सुंदर साम्य है। इसके उपरान्त पवन द्वारा प्रशांत जल के हिल जाने से छाया का मिट जाना कैसा भूतव्यापी व्यापार स्वप्नभंग के मेल में लाया गया है!

इसी प्रकार प्राकृतिक चित्रों द्वारा सूर ने कई जगह पूरे प्रसंग की व्यंजना की है। जैसे, गोपियाँ मथुरा से कुछ ही दूर पर पड़ी