पृष्ठ:भ्रमरगीत-सार.djvu/४८

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देने की झक सी चढ़ जाती है और वे उपमा पर उपमा, उत्प्रेक्षा- पर उत्प्रेक्षा कहते चले जाते हैं। इस झक में कभी कभी परिमिति या मर्यादा का विचार (Sense of proportion) नहीं रह जाता; जैसे, ऊपर के उदाहरण (ख) में कहाँ मक्खन लगी हुई छोटी सी रोटी और कहाँ गोल पृथ्वी! हाँ, जहाँ ईश्वरत्व या देवत्व की भावना से किसी छोटे व्यापार द्वारा अत्यन्त बृहद् व्यापार की ओर सँकेत मात्र किया है वहाँ ऐसी बात नहीं खटकती; जैसे इस पद में––

मथत दधि मथनी टेकि रह्यो।
आरि करत मटकी गहि मोहन वासुकि संभु डरयो॥
मंदर डरत, सिंधु पुनि काँपत फिरि जनि मथन करै।
प्रलय होय जनि गहे मथानी, प्रभु मर्याद टरै॥

पर उक्त दोनों उदाहरणों के संबंध में तो इतना बिना कहे नहीं रहा जाता कि ऐसे उपमान बहुत काव्योपयोगी नहीं जंँचते। काव्य में ऐसे ही उपमान अच्छी सहायता पहुँचाते हैं जो सामान्यतः प्रत्यक्ष रूप में परिचित होते हैं और जिनकी भव्यता, विशालता या रमणीयता आदि का संस्कार जनसाधारण के हृदय पर पहले से जमा चला आता है। न शनि का कोयले सा कालापन ही किसी ने आँखों देखा है, न बराह भगवान् का दाँत की नोक पर पृथ्वी उठाना। यह बात दूसरी है कि केशव ऐसे कुछ प्रसिद्ध कवियों ने भी "भानु मनो सनि अंक लिए" ऐसी उत्प्रेक्षा की ओर रुचि दिखाई है।

हमारे कहने का यह तात्पर्य नहीं कि ज्ञान विज्ञान के प्रसार से जो सूक्ष्म से सूक्ष्म और बृहत् से बृहत् क्षेत्र मनुष्य के लिए खुलते जाते हैं उनके भीतर के नाना रमणीय और अद्भुत रूपों और व्यापारों का––जो सर्वसाधारण को प्रत्यक्ष नहीं हैं––काव्य