सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:भ्रमरगीत-सार.djvu/५१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
[४०]

उपमानों की आनंद-दशा का वर्णन करके इसी प्रकार सूर ने 'अप्रस्तुत-प्रशंसा' द्वारा राधा के अंगों और चेष्टाओं का विरह से द्युतिहीन और मंद होना व्यंजित किया है––

तब तें इन सबहिन सचु पायो।
जब तें हरि संदेस तिहारो सुनत ताँवरो आयो॥
फूले ब्याल दुरे तें प्रगटे, पवन पेट भरि खायो।
ऊँचे बैठि बिहग-सभा बिच कोकिल मंगल गायो॥
निकसि कँदरा तें केहरिहू माथे पूँछ हिलायो।
बनगृह तें गजराज निकसि कै अँग अँग गर्व जनायो॥

चेष्टाओं और अंगों का मंद और श्रीहीन होना कारण है, और उपमानों का आनंदित होना कार्य है। यहाँ अप्रस्तुत कार्य के वर्णन द्वारा प्रस्तुत कारण की व्यंजना की गई है। गोस्वामी तुलसीदास- जी ने जानकी के न रहने पर उपमानों का प्रसन्न होना राम के मुख से कहलाया है––

कुंँदकली, दाड़िम, दामिनी! कमल, सरदससि, अहि-भामिनी॥
श्रीफल कनक कदलि हरषाहीं। नेकु न संक सकुच मन माहीं॥
सुनु जानकी! तोहि बिनु आजू। हरषे सकल पाइ जनु राजू॥

पर यहाँ उपमानों के आनंद से केवल सीता के न रहने की व्यंजना होती है। सूर की 'अप्रस्तुत-प्रशंसा' में उक्ति का चमत्कार भी कुछ विशेष है और रसात्मकता भी।

दूर की सूझ या ऊहावाले चमत्कार-प्रधान पद भी सूर ने बहुत से कहे हैं; जैसे––

(क) दूर करहु बीना कर धरिबो।
मोहे मृग नाहीं रथ हाँक्यो, नाहिं न होत चंद को हरियो॥