पृष्ठ:भ्रमरगीत-सार.djvu/५३

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बिल्कुल बच्चों की सी दिखाना स्वाभाविक नहीं जँचता। कविता में दूर की सूझ या चमत्कार ही सब कुछ नहीं है।

पावस के घन-गर्जन आदि वियोगिनी को संतापदायक होते हैं, यह तो एक बँधी चली आती हुई बात है। सूर ने एक प्रसंग कल्पित करके इस बात को ऐसी युक्ति से रख दिया है कि इसमें एक अनूठापन आ गया है। वे कहते हैं कि पावस आने पर सखियाँ राधा को मालूम ही नहीं होने देतीं कि पावस आया है। वे और और बातें बताकर उन्हें बहकाती रहती हैं––

बात बूझत यों बहरावति।
सुनहु स्याम! वै सखी सयानी पावस ऋतु राधहि न सुनावति।
घन गरजत तौ कहत कुसलमति गूंजत गुहा सिंह समझावति॥
नहिं दामिनि, द्रम-दवा सैल चढ़ी,फिरि बयारि उलटी झर लाबति।
नाहिं न मोर बकत पिक दादुर, ग्वाल-मँडली खगन खेलावति॥

सूर को वचन-रचना की चतुराई और शब्दों की क्रीड़ा का भी पूरा शौक़ था। बीच बीच में आए हुए कूट पद इस बात के प्रमाण है, जिनमें या तो अनेकार्थवाची शब्दों को लेकर या किसी एक वस्तु को सूचित करने के लिये अनेक शब्दों की लंबी लड़ी जोड़कर खेलवाड़ किया गया है। सूर की प्रकृति कुछ क्रीड़ाशील थी। उन्हें कुछ खेल-तमाशे का भी शौक़ था। लीलापुरुषोत्तम के उपासक कवि में यह विशेषता होनी ही चाहिए। तुलसी के गंभीर मानस में इस प्रवृत्ति का आभास नहीं मिलता। अपनी इस शब्द कौशल की प्रवृत्ति के कारण सूर ने व्यवहार के कुछ पारिभाषिक शब्दों को लेकर भी एक आध जगह उक्तियाँ बाँधी हैं; जैसे––

साँचो सो लिखवार कहावै।
काया-ग्राम मसाहत करि कै, जमा बाँधि ठहरावै।