पृष्ठ:भ्रमरगीत-सार.djvu/५६

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मिलान करने पर सूर की विनयावली और तुलसी की विनय-पत्रिका में सखा और सेवक का कोई भेद न पाया जायगा। विनय में सूर भी ऐसा ही कहते पाए जायँगे––"प्रभु! हौं सब पतितन को टीको"। यों तो तुलसी भी प्रेम-भाव में मग्न हो सामीप्य और घनिष्ठता अनुभव करते हुए 'पूतरा बाँधने' के लिए तैयार होकर गए हैं और शबरी आदि को तारने पर कहते हैं––"तारेहु का रही सगाई?"

इसी सांप्रदायिक प्रवाद से प्रभावित होकर कुछ महानुभावों ने सूर और तुलसी में प्रकृति-भेद बताने का प्रयत्न किया है और सूर को खरा तथा स्पष्टवादी और तुलसी को सिफारशी, खुशामदी या लल्लो-चप्पो करनेवाला कहा है। उनकी राय में तुलसी कभी राम की निंदा नहीं करते; पर सूर ने "दो चार स्थानों पर कृष्ण के कामों की निंदा भी की है; यथा––

(क) तुम जानत राधा है छोटी।
हम सों सदा दुरावति है यह, बात कहै मुख चोटी पोटी॥
नँदनंदन याही के बस हैं, विवस देखि वेंदी छबि चोटी।
सूरदास प्रभु वै अति खोटे, यह उनहूँ तें अति ही खोटी॥
(ख) सखी री! स्याम कहा हित जानै।
सूरदास सर्वस जौ दीजै कारो कृतहि न मानै"॥

पर यह कथन कहाँ तक ठीक है, इसका निर्णय इस प्रश्न के उत्तर द्वारा झटपट हो सकता है। "सूरदास प्रभु वै अति खोटे" "कारो कृतहि न मानै" इन दोनों वाक्यों में वाच्यार्थ के अतिरिक्त संलक्ष्य असंलक्ष्य किसी प्रकार का व्यंग्यार्थ भी है या नहीं? यदि किसी प्रकार का व्यंग्य नहीं है तो उक्त कथन ठीक हो सकता है। पर किसी प्रकार का व्यंग्यार्थ न होने पर ये दोनों वाक्य रसात्मक