पृष्ठ:भ्रमरगीत-सार.djvu/६०

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गूढ़ता और तन्मयता देखकर शिक्षा ग्रहण करें और सगुण भक्ति- मार्ग की सरसता और सुगमता के सामने उनका ज्ञान-गर्व दूर हो––

जदुपति जानि उद्धव-रीति।
जेहि प्रगट निज सखा कहियत करत भाव अनीति॥
विरह-दुख जहँ नाहिं जामत, नाहिं उपजत प्रेम।
रेख, रूप न बरन जाके यह धरयो वह नेम॥
त्रिगुन तन करि लखत हमकों, ब्रह्म मानत और।
बिना गुन क्यों पुहुमि उधरै, यह करत मन डौर॥
बिरह-रस के मंत्र कहिए क्यों चलै संसार।
कछु कहत यह एक प्रगटत, अति भरयो हंकार॥
प्रेम भजन न नेकु याके, जाय क्यों समझाय?
सूर प्रभु मन यहै आनी, ब्रजहि देहुँ पठाय॥

"त्रिगुन तन करि लखत हमकों, ब्रह्म मानत और" इसी भ्रम का निवारण कृष्ण चाहते थे। जगत् से ब्रह्म को सदा अलग मानना, जगत् की नाना विभूतियों में उसे न स्वीकार करना भक्ति मार्गियों के निकट बड़ी भारी भ्रांति है। 'अहमात्मा गुडाकेश, सर्वभूताशयस्थितः" इस भगवद्वाक्य को मन में बैठाए हुए भक्त- जन गीता के इस उपदेश के अनुसार भगवान् के व्यक्त स्वरूप की ओर आकर्षित रहते हैं––

क्लेशोऽधिकतरस्तेषामव्यक्तासतचेतसाम्।
अव्यक्ता हि गतिर्दु:खं देहवद्भिरवांप्यते॥

उद्धव बात बात में "एक प्रगटत"––अद्वैतवाद का राग अलापते थे। पर "विरह-रस के मंत्र कहिए क्यों चलै संसार ?"–रस-विहीन उपदेशसे लोक व्यवहार कैसे चल सकता है? रसविहीन उपदेश किस प्रकार असर नहीं करते, यहीं दिखाने को भ्रमरगीत की रचना हुई है।