पृष्ठ:भ्रमरगीत-सार.djvu/६३

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यदि केशवदास के ढंग पर सूर भी यहाँ उक्त शब्दसाम्य को लेकर 'कृष्ण' और 'पत्री' की तुलना पर ज़ोर देने लगते—कहते कि पत्री मानो कृष्ण ही है, क्योंकि वह भी श्याम है और उसके भी अङ्क (वक्षस्थल) है—तो काव्य की रमणीयता कुछ भी न आती। राधा को वह पत्री जो कृष्ण के समान लग रही है, वह सादृश्य या साधर्म्य के कारण नहीं, बल्कि संबंध-भावना के कारण, कृष्ण के हाथ की लिखी होने के कारण। केवल शब्दात्मक साम्य को लेकर यदि हम किसी पहाड़ को कहें कि यह बैल है क्योंकि इसे भी 'श्रृंग' हैं, तो यह काव्यकला तो न होगी, और कोई कला हो तो हो। क्या ज़रूरत है कि शब्दों की जितनी कलाबाजियाँ हों, सब काव्य ही कहलावें?

गोपियाँ कहती हैं कि हम ने इतने सँदेसे भेजे हैं कि शायद उनसे मथुरा के कूएँ भर गए होंगे; पर जो सँदेसा लेकर जाता है वह लौटता नहीं—

सँदेसनि मधुबन कूप भरे।
जो कोउ पथिक गए हैं ह्याँ तें फिरि नहिं गवन करे॥
कै वै स्याम सिखाय समोधे, के वै बीच मरे?
अपने नहिं पठवत नन्द-नन्दन हमरेउ फेरि धरे॥
मसि खूँटी, कागर जल भीजे, सर दव लागि जरे।

प्रिय से संबंध रखनेवाले व्यक्तियों या वस्तुओं का प्रिय लगना ऊपर दिखा आए हैं। इस पद में प्रेमाभिलाप की पूर्ति में जो वस्तुएँ बाधक होती हैं, सहायक नहीं होती या उपयोग में नहीं आतीं, उनके ऊपर बड़ी सुन्दर झल्लाहट स्त्रियों की स्वाभाविक बोली में प्रकट की गई है। पथिक सँदेसा लेकर गए, पर न लौटे; न जाने कहाँ मर गए! कोई चिट्ठी भी नहीं आती है। मथुरा भर