पृष्ठ:भ्रमरगीत-सार.djvu/६४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
[५५]

में स्याही ही चुक गई, या कागज भींगकर गल गए अथवा सरकंडों में (जिनकी क़लम बनती है) आग लग गई, वे जल गए ?

जो कोई पथिक उधर से होकर निकलता है उसे रोककर गोपियाँ अपना सँदेसा कहने लगती हैं। अब तो यह दशा है कि इसी डर से पथिकों ने उधर से होकर जाना ही छोड़ दिया है––

सूरदास संदेसन के डर पथिक न वा मग जात।

ज्यों ही उद्धव अपना ज्ञान-संदेश सुनाना आरंभ करते हैं त्यों ही गोपियाँ चकपका कर पूछने लगती हैं––

हम सों कहत कौन की बातें?
सुनि, ऊधो! हम समझति नाहिं, फिरि बूझति हैं तातें॥
को नृप भयो, कंस किन मारयो, को बसुद्यौ-सुत आहि?
यहाँ हमारे परम मनोहर जीजत हैं मुख चाहि॥

गोपियों को यह 'चकपकाहट' उद्धव की बात की असंगति पर होती है। जिसने ऐसा संदेसा भेजा है वह न जाने कौन है। परम प्रेमी कृष्ण तो हो नहीं सकते। इसका तात्पर्य यह नहीं कि वे सचमुच उद्धव को कृष्ण का दूत नहीं समझ रही हैं। वे केवल विश्वास करने की अपनी अतत्परता और आश्चर्य मात्र व्यंजित कर रही हैं। कृष्ण के संबंध से उद्धव भी गोपियों को प्रिय और अनोखे लग रहे हैं। इसी से बीच बीच में वे उन्हें बनाने और उनसे परिहास करने लगती हैं। वे कृष्ण पर भी फवती छोड़ती हैं और उद्धव को भी बनाती हैं––

अधो! जान्यो ज्ञान तिहारो।
जानै कहा राजगति-लीला अंत अहीर बेचारो॥
आवत नाहीं लाज के मारे, मानहु कान्ह खिसान्यो।
हम सबै अयानी, एक सयानी कुबजा सों मन मान्यो॥