पृष्ठ:भ्रमरगीत-सार.djvu/६५

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ऊधो जादु बाहँ धरि ल्याओ सुन्दर स्याम पियारो।
ब्याहौ लाख, धरौ दस कुबरी, अंँतहि कान्ह हमारो॥

परिहास के अतिरिक्त अन्तिम चरण में प्रेम की उच्च दशा के 'औदार्य्य' की कैसी साफ़ झलक है।

उद्धव कहते जाते हैं, पर गोपियाँ के मन में यह बात समाती ही नहीं कि यह कृष्ण का संदेसा है। कभी वे कहती हैं–– "ऊधो! जाय बहुरि सुनि आबहु कहा कह्यो है नंदकुमार"; कभी कहती हैं––"स्याम तुम्हैं ह्याँ नाहिं पठाए, तुम हौ बीच भुलाने"। जब उद्धव बकते ही जाते हैं तब वे और भी बनाती हैं; कहती हैं कि जरा अपने होश की दवा करो––

ऊधो। तुम अपनो जतन करौ।
हित की कहत कुहित की लागै, किन बेकाज ररौ?
जाय करौ उपचार आपनो, हम जो कहत हैं जी की।
कछू कहत कछुवै कहि डारत धुन देखियत नहिं नीकी॥

बीच-बीच में वे खिझला भी उठती हैं और कहती हैं कि तुम्हारे मुँह कौन लगे, तुम तो सनक गए हो। वहाँ सिर खाने लगे थे तभी तुम्हें यहाँ भेजकर श्रीकृष्ण ने अपना पल्ला छुड़ाया––

साधु होय तेहि उत्तर दीजै तुम सों मानी हारि।
याही तें तुम्हैं नन्दनन्दन जू यहाँ पठाए टारि॥

फिर चित्त में कुछ विनोद-वृत्ति के आ जाने पर वे कहती है–– "भाई! खूब आए! इस दुःख-दशा में भी अपनी बेढब बातों से एक बार लोगों को हँसा दिया––

ऊधो! भली करी तुम आए।
ये बातें कहि कहि या दुख में ब्रज के लोग हँसाए"॥

प्रेम के जिस हास-क्रीड़ामय स्वरूप को सूर ने लिया है, विप्र-