ऐसी वस्तु अनूपम, मधुकर! मरम न जानै और।
ब्रजवासिन के नाहिं काम की, तुम्हरे ही है ठौर॥
"देखना, अपना योग कहीं भूल न जाना। गाँठ में बाँध रखो; कहीं छूट जाय तो फिर पीछे पछताओ। ऐसी वस्तु जिसका मर्म सिवा तुम्हारे या तुम्हारे ऐसे दो चार फालतू दिमाग़वालों के और कोई जान ही नहीं सकता, ब्रजवासियों के किसी काम की नहीं। ऐसी फालतू चीज़ के लिए तुम्हारे ही यहाँ जगह होगी, यहाँ नहीं है", जिसके सखा के दर्शन से विरह से मुरझाई हुई गोपियों में इतनी चपलता आ गई कि वे लड़कों की तरह चिढ़ाने को तैयार हो गईं उसके दर्शन से उनमें कितनी सजीवता आती, यह समझने की बात है। ज्ञानयोग पर भी कैसी मीठी चुटकी है। जिसे केवल एक आध आदमी समझते हैं वह वस्तु सबके काम की नहीं हो सकती। उद्धव जब उसे गले लगाते हैं तब गोपियों का भाव बद- लता है और वे उन्हें सीधे सादे बेवकूफ़ नहीं लगते, बल्कि एक ठग या धूर्त के रूप में दिखाई पड़ते हैं। यह भावांतर उनकी कल्पना को कैसा चित्र खड़ा करने में लगाता है, देखिए––
(क) आयो घोष बड़ो व्यापारी।
लादि खेप यह ज्ञान-जोग की व्रज में आय उतारी॥
फाटक दै कर हाटक माँगत भोरी निपट सु धारी।
(ख) ऊधो। ब्रज में पैंठ करी।
यह निर्गुन निर्मूल गाठरी अब किन करहु खरी॥
नफ़ा जानिकै ह्याँ लै आए सबै वस्तु अकरी।
उदाहरण (ख) में 'निर्मूल' शब्द कितना अर्थ-गर्भित है। साधारण दृष्टि से तो यही अर्थ दिखाई पड़ता है कि 'बिना जड़ पत्ते की वस्तुवाली' अर्थात् जिसमें कुछ भी नहीं है, शून्य है! पर