दासजी ने स्पष्ट कह दिया है कि अज्ञान ही के द्वारा––शब्दबोध के ही सहारे––तो ज्ञान की बातें कही जाती हैं। वे ललकारकर कहते हैं––"ज्ञान कहै अज्ञान बिनु, सो गुरु, तुलसीदास"।
जब उद्धव की बकवाद बंद नही होती, वे ऐसी बातें बकते ही जाते हैं जो गोपियों को बे सिर पैर की लगती हैं, जिनका कुछ स्पष्ट अर्थ नहीं जान पड़ता, तब वे ऊबकर झुँझला उठती हैं। कहती हैं––"तुझसे कौन सिरपच्ची करे–'ऐसी को ठाली बैठी है तोसों मूड़ खपावै' कह दिया कि तेरा सिर पटकना व्यर्थ है'।
"कत श्रम करत; सुनत को ह्याँ है? होत ज्यों बन को रोयो।
सूर इते पै समझत नाहीं, निपट दई को खोयो।"
"निपट दई को खोयो"––स्त्रियों की झुँझलाहट के कैसे स्वाभाविक वचन हैं! अंँत में वे उद्धव पर इस प्रकार झल्ला उठती हैं––
(क) ऊधो! राखति हौं पति तेरी।
ह्याँतें जाहु, दुरहु आगे तैं, देखति आँखि वरति हैं मेरी॥
ते तौ तैसेइ दोउ बने हैं, वै अहीर, वह कंस की चेरी।
(ख) रहु रे मधुकर मधु मतवारे!
कहा करौं निर्गुन लैकै हौं! जीवहु कान्ह हमारे॥
क्या यह कहने की आवश्यकता है कि इस सारी 'झुँझलाहट' और 'झल्लाहट' (उग्रता) की तह में प्रेम की एक अखंड धारा बह रही है?
यह झल्लाहट बराबर नहीं रहती। थोड़ी देर में शांत भाव आ जाता है और 'मति' का उदय दिखाई पड़ता है––
(क) अधो! जो तुम इमहिं सुनायो।
सो हम निपट कठिनई करिकै या मन को समझायो॥