पृष्ठ:भ्रमरगीत-सार.djvu/७५

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करिहौं न तुमसों मान हठ, हठिहौं न माँगत दान।
कहिहौं न मृदु मुरली बजावन, करन तुमसों गान॥
कहिहौं न चरनन देन जावक, गुहन बेनी फूल।
कहिहौं न करन सिंगार वट-तर बसन जमुना कूल॥
भुज भूषनन जुत कँध धरि कै रास नाहिं कराउँ।
हौं सँकेत निकुंज बसि कै दूति मुख न बुलाउँ॥
एक बार जो देहु दरसन प्रीति-पंथ बसाय।
करौं चौंर चढ़ाय आसन नैन अँग अँग लाय॥
देहु दरसन, नँदनँदन! मिलन हो की आस।
सूर प्रभु की कुँवर-छवि को मरत लोचन प्यास॥

इन मर्म-भरी भोली-भाली प्रतिज्ञाओं में जो अनुताप, अधीनता और त्याग के उद्गार हैं उनका यह प्रेम-गर्वसूचक वाक्य "कहिहौं न चरनन देन जावक" स्मर्यमाण विषय होने के कारण विरोधी नहीं होता। उक्त पद में ध्यान देने को सबसे बड़ी बात यह है कि प्रेम अब किस प्रकार चपल क्रीड़ा-वृत्ति छोड़ शांत आराधना के रूप में परिणत होने को तैयार हो गया है। यह प्रेम का भक्ति में पर्यसवान है। सुख-क्रीड़ा-त्याग रूप विरति पक्ष दिखाकर मानो सूर ने भक्ति-मार्ग के शांत रस का स्वरूप दिखाया है।

आत्मोत्सर्ग को पराकाष्टा वहाँ समझनी चाहिए जहाँ प्रेमी निराश होकर प्रिय के दर्शन का आग्रह भी छोड़ देता है। इस अवस्था में वह अपने लिए प्रिय से कुछ चाहना छोड़ देता है और उसका प्रेम इस अविचल कामना के रूप में आ जाता है कि प्रिय चाहे जहाँ रहे, सुख से रहे; उसका बाल भी बाँका न हो––

जहँ जहँ रहौ राज करौ तहँ तहँ, लेहु कोटि सिर भार।
यह असीस हम देतिं सूर सुनु 'न्हात खसै जनि बार॥