पृष्ठ:भ्रमरगीत-सार.djvu/७६

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विरहोन्माद की गहरी व्याकुलता के बीच में भी यह कामना बराबर बनी रहती है। गोपियों को वियोग में चंद्रमा तपते सूर्य, गाय-बछड़े बाघ और भेड़िए जान पड़ रहे हैं। वे उद्धव से कहती हैं––'तुम तो यहाँ की दशा देख ही रहे हो; कह देना कि जब तक ये सब आफ़तें यहाँ से टल न जायँ, तब तक वे वही रहें; ऐसी हालत में यहाँ न आवें'––

ऊधो! इतनी जाय कहौ।
सब वल्लभी कहतिं हरि सों 'ये दिन मधुपुरी रहौ॥
आज कालि तुमहू देखत हौ तपत तरनि सम चंद।
सुँदर स्याम परम कोमल तनु, क्यों सहिहैं नँदनँद॥
मधुर मोर पिक परुष प्रबल अति वन उपवन चढ़ि बोलत।
सिंह बृकन सम गाय वच्छ व्रज बीथिन बीथिन डोलत॥
तुम तौ परम साधु कोमलचित जानत हौ सब रीति।
सूर स्याम को क्यों बोलैं ब्रज बिन टारे यह ईति'॥

विरही घोर दुःख सहता हुआ भी यह कभी मन में नहीं लाता कि यह प्रेम दूर हो जाता तो अच्छा था। कोई मंत्रशास्त्री आकर कहे––'अच्छा, हम वह प्रेम हो मंत्रबल से उड़ाए देते हैं जो सारे बखेड़े की जड़ है' तो कोई वियोगी शायद ही तैयार होगा––चाहे वह दुनिया भर से कहता फिरे कि 'प्रीति करि काहू सुख न लह्यो'। और दुःखों से वियोग-दुःख में यही विशेषता है। वियोगी रस्सी जुड़ाकर प्रेम के बाड़े के बाहर नहीं भागना चाहता। गोपियाँ प्रेम-क्षेत्र के बाहर की किसी वस्तु के प्रति कैसी उपेक्षा या लापरवाई खकट करती हैं-

मधुकर! कौन मनायो मानै?
सिखवहु तिनहिं समाधि की बातैं जे हैं लोग सयाने।