पृष्ठ:भ्रमरगीत-सार.djvu/७८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
[६९]

अब हमरे जिय बैट्यो यह, पद 'होनी होउ सो होऊ'।
मिटि गयो मान परेखो, ऊधो! हिरदय हतो सो होऊ॥

'भ्रमरगीत' में कुब्जा का नाम भी बार बार आया है। इसके कारण 'असूया' की बड़ी वक्रतापूर्ण व्यंजनाएँ मिलती हैं। जब उद्धव कृष्ण का संदेश कह कर अपनी ज्ञान-चर्चा छेड़ते हैं तभी गोपियाँ कहती हैं कि यह कृष्ण का संदेश नहीं जान पड़ता; यह तो उसी कुबड़ी पीठवाली की कारस्तानी मालूम पड़ती है––

मधुकर! कान्ह कही नहिं होहीं।
यह तौ नई सखी सिखई है निज अनुराग वरोही॥
सचि राखी कूबरी पीठ पै ये बातैं चकचोही।

फिर वे 'असूया' का भाव इन साफ शब्दों में प्रकट करती हैं कि इस समय कृष्ण की चहेती कुब्जा का ही जीवन सफल है––

जीवन मुँहचाही को नीको।
दरस परस दिन राति करति है कान्ह पियारै पी को॥

वे उद्धव से कहती हैं कि तुम अपनी ज्ञान-कथा वहीं रखो जहाँ इस समय खूब आनंद-मङ्गल हो रहा है; यहाँ जगह नहीं है––

या कहँ यहाँ ठौर नाहीं, लै राखो जहाँ सुचैन।
हम सब सखि गोपाल उपासिनि हमसों बातैं छाँड़ि।
सूर, मधुप! लै राखु मधुपुरी कुबजा के घर गाड़ि॥

'वहीं कुब्जा के घर गाड़ रखो' स्त्रियों के मुख के कैसे जले कटे स्वाभाविक शब्द हैं! संदेश का उत्तर थोड़े ही में वे यह देतीं हैं कि यदि यह ज्ञानयोग ऐसी उत्तम वस्तु है तो इसे उस कुबड़ी को दो; हमारे सामने वह (कृष्ण का) रूप ही कर दो; हम अपना उसी को देखा करें––