पृष्ठ:भ्रमरगीत-सार.djvu/७९

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पा लागौं कहियो मोहन सों जोग कूबरी दीजै।
सूरदास प्रभु-रूप निहारैं, हमरे संमुख कीजै॥

वे कृष्ण जिन्होंने इतनी गोपियों का मन चुराया, एक साधारण कुबड़ी दासी के प्रेम-जाल में फंँस गए, इस पर देखिए कैसी मीठी चुटकी और कैसा कुतूहलपूर्ण कृत्रिम संतोष प्रकाशित किया गया है––

बरु वै कुवजा भलो कियो।
सुनि सुनि समाचार, ऊधो! मो कछुक सिरात हियो॥
जाको गुन, गति, नाम, रूप हरि हास्यो फिरि न दियो।
तिन अपनो मन हरत न जान्यो, हँसि हँसि लोग जियो॥

क्षुब्ध हृदय को कैसी भाव-प्रेरित वचन-रचना है! इसी प्रकार की वाग्विदग्धता और वक्रता (वाँकपन) उद्धव के 'निराकार' शब्द पर आगे गोपियों की विलक्षण उक्ति में दिखाई पड़ती है। वे राधा को संबोधन करके कहती हैं––

मोहन माँग्यो अपनो रूप।
या ब्रज बसत अँचै तुम बैठी, ता विनु तहाँ निरूप॥

'कृष्ण का रूप तो तुम पी गई हो', वह तुम्हारे हृदय में रह गया है (तुम निरंतर उनके रूप का ध्यान करती रहती हो) इससे वे वहाँ 'निरूप'–– बिना आकार के––हो रहे हैं। उद्धव के द्वारा उन्होंने अपना वही रूप माँग भेजा है कि निराकारता मिटे। तुम जो रात दिन उनके रूप का ध्यान करती रहती हो उसे भी उद्धव छुड़ाने आए हैं, यह बात कितने टेढ़े ढंग से, किस वक्रता के साथ, प्रकट की गई है! वाणी ने यह वक्रता हृदय की प्रेरणा से, उठते हुए भावों की लपेट में, ग्रहण की है। इसकी तह में भाव स्रोत छिपा हुआ है।