पृष्ठ:भ्रमरगीत-सार.djvu/८३

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स्त्रियों के कैसे स्वाभाविक हाव-भाव-भरे ये वचन हैं––"है, हम ठीक ठीक पूछती हैं, हँसी नहीं, कि तुम्हारा निगुर्ण-का रहनेवाला है"। कुछ विनोद, कुछ चपलता, कुछ भोलापन कुछ घनिष्ठता––कितनी बातें इस छोटे से वाक्य से टपकती हैं।

ज्ञान-मार्गी वेदांतियों और दार्शनिकों के सिद्धांतों की लो में अव्यवहार्यता तथा उनके वेडौल और भड़कीले शब्दों के अंतः की अस्पष्टता और दुर्बोधता आदि की ओर गोपियों की यह झुँझलाहट कैसा संकेत कर रही है––

याकी सीख सुनै व्रज क़ो, रे!
जाकी रहनि कहनि अनमिल अति, कहत समुझिं अति थोरे॥

'इसकी बात कौन सुने जो कहता कुछ है और करता कुछ है। तथा जो ऐसी बातें मुँह से निकालता है जिनको खुद बहुत ही कलंक समझता है'। पिछले कथन से सबके नहीं तो अधिकांश ब्रह्म-ज्ञान छाँटनेवालों के स्वरूप का चित्रण हो जाता है। वे बहुत से ऐसे बँधे हुए वाक्यों और शब्दों की झड़ी बाँधा करते हैं जिनके आगे की स्पष्ट धारणा उन्हें कुछ भी नहीं रहती। बिना समझी हुई बातें बककर वे लोगों के बीच बड़े समझदार बना करते हैं।

निर्गुण की नीरसता और सगुण की सरसता किस प्रकार अपने हृदय के सच्चे अनुभव के रूप में गोपियाँ उद्धव के सामने क्या, जगत् के सामने रखती हैं––

ऊनो कर्म कियो मातुल वधि मदिरा:मत्त प्रमाद।
सूरस्याम एते अबगुन में निर्गुन तें अति स्वाद॥

ज्ञान-मार्ग का गोपियों ने तिरस्कार तो किया, पर यह सोच कर कि कहीं उद्धव का जी न दुखा हो, वे उनका समाधान भी