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भ्रमरगीत-सार
 

सुनहु उद्धव मोहिं ब्रज की सुधि नहीं बिसराय॥
रैनि सोवत, चलत, जागत लगत नहिं मन आन।
नंद, जसुमति नारि नर ब्रज जहाँ मेरो प्रान॥
कहत हरि, सुनि[१] उपँगसुत! यह कहत हौं रसरीति।
सूर चित तें टरति नाहीं राधिका की प्रीति॥५॥


राग सारंग
सखा! सुनो मेरी इक बात।

वह लतागन संग गोपिन सुधि करत पछितात॥
कहाँ वह वृषभानुतनया परम सुंदर गात।
सुरति आए रासरस की अधिक जिय अकुलात॥
सदा हित यह रहत नाहीं सकल मिथ्या जात।
सूर प्रभु यह सुनौ मोसों एक ही सों नात॥६॥


राग टोड़ी
उद्धव! यह मन निस्चय जानो।

मन क्रम बच मैं तुम्हैं पठावत ब्रज को तुरत पलानो[२]
पूरन ब्रह्म, सकल, अबिनासी ताके तुम हौ ज्ञाता।
रेख, न रूप, जाति, कुल नाहीं जाके नहिं पितु माता॥
यह मत दै गोपिन कहँ आवहु विरह-नदी में भासति[३]
सूर तुरत यह जाय कहौ तुम ब्रह्म बिना नहिं आसति[४]॥७॥


राग नट
उद्धव! बेगि ही ब्रज जाहु।

सुरति सँदेस सुनाय मेटो बल्लभिन[५] को दाहु॥


  1. सुनि=सुन।
  2. पलानो=जाओ, प्रस्थान करो।
  3. भासति=डूबती हैं।
  4. आसति=आसक्ति, सामीप्य, मुक्ति।
  5. बल्लभी=प्यारी।