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भ्रमरगीत-सार
सुनहु उद्धव मोहिं ब्रज की सुधि नहीं बिसराय॥
रैनि सोवत, चलत, जागत लगत नहिं मन आन।
नंद, जसुमति नारि नर ब्रज जहाँ मेरो प्रान॥
कहत हरि, सुनि[१] उपँगसुत! यह कहत हौं रसरीति।
सूर चित तें टरति नाहीं राधिका की प्रीति॥५॥
सखा! सुनो मेरी इक बात।
वह लतागन संग गोपिन सुधि करत पछितात॥
कहाँ वह वृषभानुतनया परम सुंदर गात।
सुरति आए रासरस की अधिक जिय अकुलात॥
सदा हित यह रहत नाहीं सकल मिथ्या जात।
सूर प्रभु यह सुनौ मोसों एक ही सों नात॥६॥
उद्धव! यह मन निस्चय जानो।
उद्धव! बेगि ही ब्रज जाहु।
सुरति सँदेस सुनाय मेटो बल्लभिन[५] को दाहु॥
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