पृष्ठ:भ्रमरगीत-सार.djvu/९५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
भ्रमरगीत-सार
१०
 

एकै निहचै प्रेम को जीवन-मुक्ति रसाल।
साँचो निहचै प्रेम को, हो, जो मिलिहैं नँदलाल।
सुनि गोपिन को प्रेम नेम[१] ऊधो को भूल्यो।
गावत गुन-गोपाल फिरत कुंजन में फूल्यो॥
छन गोपिन के पग धरै, धन्य तिहारो नेम।
धाय धाय द्रुम भेंटहीं, हो, ऊधो छाके प्रेम॥
धनि गोपी, धनि गोप, धन्य सुरभी बनचारी।
धन्य, धन्य! सो भूमि जहाँ बिहरे बनवारी॥
उपदेसन आयो हुतो मोहिं भयो उपदेस।
ऊधो जदुपति पै गए, हो, किए गोप को बेस॥
भूल्यो जदुपति नाम, कहते गोपाल गोसाँई।
एक बार ब्रज जाहु देहु गोपिन दिखराई॥
गोकुल को सुख छाँड़ि कै कहाँ बसे हौ आय।
कृपावंत हरि जानि कै, हो, ऊधो पकरे पाय॥
देखत ब्रज को प्रेम नेम कछु नाहिंन भावै।
उमड़्यो नयननि नीर बात कछु कहत न आवै॥
सूर स्याम भूतल गिरे, रहे नयन जल छाय।
पोंछि पीतपट सों कह्यो, 'आए जोग सिखाय'?॥१७॥


राग धनाश्री
हमसों कहत कौन की बातें?

सुनि ऊधो! हम समुझत नाहीं फिरि पूँछति हैं तातें॥
को नृप भयो कंस किन मार्‌यो को वसुद्यौ-सुत आहि?
यहाँ हमारे परम मनोहर जीजतु हैं मुख चाहि[२]


  1. नेम = नियय, योग
  2. चाहि=देखकर।