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भ्रमरगीत-सार
१२
 


राग केदार
गोकुल सबै गोपाल-उपासी।

जोग-अंग साधत जे ऊधो ते सब बसत ईसपुर कासी॥
यद्यपि हरि हम तजि अनाथ करि तदपि रहति चरननि रसरासी[१]
अपनी सीतलताहि न छाँड़त यद्यपि है ससि राहु-गरासी।
का अपराध जोग लिखि पठवत प्रेमभजन तजि करत उदासी[२]
सूरदास ऐसी को बिरहिन माँगति मुक्ति तजे गुनरासी?॥२१॥


राग धनाश्री
जीवन मुँहचाही[३] को नीको।

दरस परस दिनरात करति हैं कान्ह पियारे पी को॥
नयनन मूँदि मूँदि किन देखौ बँध्यो ज्ञान पोथी को।
आछे सुंदर स्याम मनोहर और जगत सब फीको॥
सुनौ जोग को का लै कीजै जहाँ ज्यान[४] है जी को?
खाटी सही नहीं रुचि मानै सूर खवैया घी को॥२२॥


राग काफी
आयो घोष बड़ो ब्योपारी।

लादि खेप[५] गुन ज्ञान-जोग की ब्रज में आय उतारी॥
फाटक[६] दै कर हाटक माँगत भोरै निपट सु धारी[७]
धुर[८] ही तें खोटो खायो है लये फिरत सिर भारी॥
इनके कहे कौन डहकावै[९] ऐसी कौन अजानी?


  1. रासी=रसी या पगी हुई।
  2. उदासी=विरक्त।
  3. मुँहचाही चहेती, प्रिया।
  4. ज्यान=जियान हानि।
  5. खेप=माल का बोझ।
  6. फाटक=अनाज फटकने से निकाला हुआ कदन्न, फटकन।
  7. धारी=समझकर।
  8. धुर=मूल, आरंभ।
  9. डहकावे=सौदे में धोखा खाय, ठगाए।