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भ्रमरगीत सार
१४
 


राग बिलावल
ए अलि! कहा जोग में नीको?

तजि रसरीति नंदनंदन की सिखवत निर्गुन फीको॥
देखत सुनत नाहिं कछु स्रवननि, ज्योति ज्योति करि ध्यावत।
सुंदरस्याम दयालु कृपानिधि कैसे हौ बिसरावत?
सुनि रसाल मुरली-सुर की धुनि सोई कौतुक-रस भूलैं।
अपनी भुजा ग्रीव पर मेलैं[१] गोपिन के सुख फूलैं॥
लोककानि कुल को भ्रम प्रभु मिलि मिलि कै घर बन खेली[२]
अब तुम सूर खवावन आए जोग जहर की बेली॥२६॥


राग मलार
हमरे कौन जोग ब्रत साधै?

मृगत्वच, भस्म, अधारि[३], जटा को को इतनो अवराधै?
जाकि कहूं थाह नहिं पैए अगम, अपार, अगाधै।
गिरिधर लाल छबीले मुख पर इते बाँध[४] को बाँधै?
आसन, पवन विभूति मृगछाला ध्याननि को अवराधै?
सूरदास मानिक परिहरि कै राख गाँठि को बाँधै? ॥२७॥


राग धनाश्री
हम तो दुहूं भाँति फल पायो।

जो ब्रजनाथ मिलैं तो नीको, नातरु जग जस गायो॥
कहँ वै गोकुल की गोपी सब बरनहीन लघुजाती।
कहँ वै कमला के स्वामी सँग मिलि बैठीं इक पाँती॥


  1. मेलैं=डालते थे।
  2. खेली=खेल डाला, कुछ न समझा।
  3. अधारी=साधुओं की टेकने की लकड़ी।
  4. बाँध=आडंबर।