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भ्रमरगीत सार
१४
ए अलि! कहा जोग में नीको?
तजि रसरीति नंदनंदन की सिखवत निर्गुन फीको॥
देखत सुनत नाहिं कछु स्रवननि, ज्योति ज्योति करि ध्यावत।
सुंदरस्याम दयालु कृपानिधि कैसे हौ बिसरावत?
सुनि रसाल मुरली-सुर की धुनि सोई कौतुक-रस भूलैं।
अपनी भुजा ग्रीव पर मेलैं[१] गोपिन के सुख फूलैं॥
लोककानि कुल को भ्रम प्रभु मिलि मिलि कै घर बन खेली[२]।
अब तुम सूर खवावन आए जोग जहर की बेली॥२६॥
हमरे कौन जोग ब्रत साधै?
हम तो दुहूं भाँति फल पायो।
जो ब्रजनाथ मिलैं तो नीको, नातरु जग जस गायो॥
कहँ वै गोकुल की गोपी सब बरनहीन लघुजाती।
कहँ वै कमला के स्वामी सँग मिलि बैठीं इक पाँती॥