गुणों को माना, तो संभव है कि हिंदी-साहित्य-संसार में मतिराम
का अब की अपेक्षा कुछ अधिक आदर होने लगे । बस, इसी विचार
से अभी इस पुस्तक में मतिराम के गुणों की चर्चा ही अधिकतर की
गई है। भविष्य में योग्य विद्वानों के हाथ में पड़कर मतिराम की
कविता के दोष भी हिंदी-साहित्य-संसार में अवश्य प्रकट होंगे। अभी
हमने मतिराम की कविता में दोष हूंढ़ निकालने का प्रयत्न बहुत कम
किया है । संभव है, समय पाकर हमी मतिराम की कविता में अनेका-
नेक दोष दिखला सकें। पाठकों को हम यह विश्वास दिला देना
चाहते हैं कि हम मतिराम के दोष छिपाना नहीं चाहते । उनकी
कविता में जो दोष हमें मालूम हैं, वे हम अवश्य प्रकट करेंगे। हमारी
राय में किसी अच्छे कवि की कृति में कुछ दोष दिखलाई पड़ने से
उस कवि के गौरव को तब तक कुछ क्षति नहीं पहुँचती है, जब तक
दोषों का पलड़ा गुणों के पलड़े से भारी न ठहर जाय । अत्यधिक
शब्दों की तोड़-मरोड़ को हम बुरा समझते हैं; परंतु साधारण शब्दों
के रूप में परिवर्तन कर देना ब्रजभाषा के कवियों की स्वीकृत एक
रीति-मात्र है । सूर, तुलसी, देव और बिहारी आदि बड़े-बड़े कवियों
की कविता में हजारों तोड़े-मरोड़े शब्द मौजूद हैं। मतिराम की
कविता में तो तोड़-मरोड़े शब्द बहुत कम हैं । अपने पूर्ववर्ती कवियों
के भावों से लाभान्वित होना भी ब्रजभाषा के कवियों ने दोष नहीं
माना है । हम भावापहरण तीन प्रकार का मानते हैं, अर्थात् भाव-
सुधार, भाव-रक्षा और भाव-दलन । भाव-सुधार से हमारा मतलब
पूर्ववर्ती के भाव से अपने भाव को बढ़ा देना है । भाव-रक्षा से यह
अभिप्राय है कि जो अच्छा भाव विस्मृत हुआ जाता था, उसे नए
परिच्छद में, नई परिस्थति के अनुकूल फिर से प्रचलित करना । भाव-
दलन से यह अर्थ है कि दूसरे के भाव म जो सौंदर्य था, उसे कुरूपता
में परिवर्तित कर डालना । इसी को हम साहित्य में चोरी के नाम
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मतिराम-ग्रंथावली