पृष्ठ:मतिराम-ग्रंथावली.djvu/१७५

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१७१
समीक्षा

समीक्षा १७१ "ढीली बाहन सों मिली, बोली कछ न बोल; सुंदरि मान जनायक लियो प्रानपति मोल ।" - इस दोहे की भावोत्कृष्टता का अंदाज़ा पाठकगण इसी से कर सकते हैं कि 'दास'-जैसे उद्भट कवि भी इस भाव के अपहरण का लोभ संवरण न कर सके । यथा- "याही ते हिय जानिगो मान हिए को लाल ! अरसीली, ढीली मिलनि मिली रसीली बाल ।" (दास-रस-सारांश) (४) आभूषण-विशेष की झलक नायिका के अवयव-विशेष पर पड़ी है । नायिका इस बात को समझ नहीं पाती और उस झलक को दूर करने का उद्योग करती है। सखी उपहास करती हुई असली बात नायिका को समझा देती है। बिहारीलालजी कहते है- "बेसरि-मोती-दुति झलक परी अधर पर आय, चूनो होय न चतुर तिय, क्यों पट पोछो जाय?" कितना मामिकतामय वर्णन है ! सखी की कैसी मृदु हँसी है ! मतिरामजी ने भी इसी भाव को एक दोहे में संपूटित किया है, पर वहाँ धोखा खानेवाली सखी है, नायिका नहीं। नायिका के कपोलों पर रद-छद बने हुए थे। लज्जा-वश वह उन्हें कपड़े से ढंककर सखी से छिपाना चाहती थी; सखी इस भेद को समझ न सकी, वह समझी कि लाल-तरयोना की आभा कपोलों पर पड़ रही है-उसको भ्रम हो गया-या संभव है, वह जान-बूझकर नायिका की लज्जा दूर करने को बन गई हो। जो हो, उसने नायिका को गोपन-कार्य से विरत किया। "प्रभा तरचोना लाल की परी कपोलनि आनि; कहा छपावति चतुर तिय कंत-दंत-छत जानि ?" इस दोहे को 'जसवंत-जसोभूषण'-कार कविराजा मुरारिदान ने अपने अलंकार-ग्रंथ में 'भ्रम' के उदाहरण में उद्धृत किया है।