पृष्ठ:मतिराम-ग्रंथावली.djvu/३१०

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३०६ मतिराम ग्रंथावली साँझहिं तें ललके मन-ही-मन लालन यौं रस के बस लीने; 'लौनी सलौनी के अंगनि नाह सु', गौने की चूनरी टोने-से कीने।। २४१॥ जा दिन तें गौनो भयो आई बाल रसाल। ता दिन नै बिरहिनि भई हरि-उर से बनमाल ॥२४२॥ चतुर्विध पति चारि भाँति सौं बरनिए, प्रथम कहत अनुकूल । दच्छिन गन, शठ, धृष्ठ पुनि, रस सिँगार को मूल ॥२४३॥ अनुकल-नायक-लक्षण सदा आपनी नारि सौं राखै अति ही प्रीति । परनारी नै बिमुख जो, सो अनुकूल सुरीति ॥२४४॥ उदाहरण क्यों हु नहीं बिसरै निसि-बासर मंद हँसी मुखचंद उज्यारी; त्यों ही दिपै अति नेह सौं देह की दीप-कला सम दीपति न्यारी। तेरिय जोति जगै हिय-भीतर आवत और न नारि-अँध्यारी; नैनन हूँ अरु बैनन हूँ तन हूँ-मन हूँ कौ तुही अति प्यारी ॥ R २४५॥ १ सोने-से अंगनि, २ उर की, ३ जासु हिए अति, ४ तुही अति लागति प्यारी। छं० नं० २४१ गौने की चूनरी टोने-से कीने जैसे टोना डालकर वश में किया जाता है वैसे ही गौने की चूनरी ने अपना रंग जमा रक्खा है। छं० नं० २४२ ता दिन नै बनमाल-जब से नायक नायिका को ब्याह लाया है तब से वह सदा उसे हृदय से लगाए रहता है और इसी कारण उसे बनमाला पहनने का अवसर ही नहीं मिलता। छं० नं० २४५ दिपै प्रकाशित होती है।