पृष्ठ:मतिराम-ग्रंथावली.djvu/३४६

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मतिराम-ग्रंथावली

SE ३४२ मतिराम-ग्रंथावली mirriasini । जे अंगन पिय संग मैं बरसत हते पियूष । ते बीछ के डंक-से, भए मयंक मयूष ॥४१४॥ प्रलाप-लक्षण उतकंठा ते कहत हैं जहाँ मोहमय बैन । बरनत तहाँ प्रलाप हैं, जे प्रबीन रस - ऐन ॥४१५॥ उदाहरण कहियो सँदेसो प्रानप्यारी को गमन कीनौ', बिक्रम बिलास जे वे आपने परस के ; चंद कर-बरछीन छेदि-छेदि हारयौ तीर, तीछन मनोज के कड़क करि न सके । कबि 'मतिराम' ये कुलिस-कैसे घाव क्यौं हु, गनत न कोकिल की कूकन के कसके ; कैसे दरकतु मेरो उर सदा सहि रह्यो, . तेरे कूच निपट कठोरनि के मसके ॥४१६॥ बिकल लाल कौं बाल तू, क्यौं न बिलोकति आनि ? बोलि कोकिलनि सौं कहै. बोल तिहारे जानि ॥४१७॥ उन्माद-लक्षण उतकंठा तें मोहमय, बृथा करत कछ काज। ताहि कहत उन्माद हैं, कबि-कोबिद-सिरताज ॥४१८॥ १ पयान कीने । छं० नं० ४१४ मयूष-किरण । छं० नं० ४१६ चंद कर-बरछीन करि न सके= चंद्र अपनी किरण रूपी बरछियों से छिद्र कर-करके हार गया तथा कामदेव के तीक्ष्ण शर भी मेरा कुछ न कर सके । कुलिस = वज्र । कैसे दरकतुमसके मेरा हृदय सदा से तुम्हारे कठोर कुचों के घिस्से सह रहा है इसलिये वह कैसे विदीर्ण हो सकता है। .. ।