पृष्ठ:मतिराम-ग्रंथावली.djvu/३५१

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ललितललाम

Hungaroo ललितललाम मंगलाचरण सुखद साधुगन' कौं सदा गज-मुख दानि उदार। सेवनीय सब जगत को जग-मा-बाप-कुमार ॥१॥ कबि ‘मतिराम' गनेस कौं सुमिरत सुख सरसात। स्रौन-पौन लागें बिघन', तूल-तूल उड़ि जात ॥२॥ मदरस मत्त मिलिंदगन, गान मदित गननाथ । सुमिरत कबि मतिराम' कौं, ऋद्धि-सिद्धि-निधि हाथ ॥३॥ पारबती के पयोधर के पय ज्योति जगै अति उज्जल जो है; ईस के सीस ससी सरसिंधु अमीजुत पावन पाप बिमोहै। १ जन, २ बर्ननीय, ३ माया सुकुमार, ४ दरसात, ५ दुरि । छं० नं० १ सेवनीय सब जगत को, जग-मा-बाप-कुमार=संसार- पूज्य पार्वती-शिव के पुत्र गणेशजी की सेवा सारे संसार को करनी चाहिए। गज-मुख गणेशजी, दानि =दानी'; जिसमें मद की धारा बहती हो। छं० नं० २ सौन-पौन-श्रवण-पवन; हाथी के बृहदाकार कानों के फटकारने से जो हवा पैदा होती है। बिघन=विघ्न । तूल तूल रुई के समान । छं० नं० ३ का भाव यह है कि जब कवि मतिराम उन गणेशजी का स्मरण करता है जो मदरस पीकर उन्मत्त होनेवाले भौंरों की गुंजार से प्रसन्न हो रहे हैं तो उसकी सारी मनोकामनाएं पूर्ण हो जाती हैं। छं० नं. ४ का भाव यह है कि साधुओं को भली भाँति बस में करनेवाले (सु बसी करतार) अथवा साधुओं को सारी संपति दिलानेवाले (सब सी करतार) गजमुख गणेशजी (करी-मुख) की सूड़ (कर) में जल-कण (सीकर) शोभा पा रहे हैं। वे जल-कण ऐसे जान