पृष्ठ:मतिराम-ग्रंथावली.djvu/३७०

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३६६ मतिराम-ग्रंथावली Sa m are आभा तरिवन लाल की परी कपोलनि आनि । कहा छपावति चतुर तिय कंत-दंत-छत जानि ॥ ८३ ।।* मान कियो सपने मैं सुहागिन भौंहैं चढ़ीं 'मतिराम' रिसौंहैं ; बातें बनाय मनाय लई मनभावन कंठ लगाय हसौंहैं। एते अचानक जागि परी सुख ते अंगिरात उठी अलसौंहैं ; लालन के लखि लोचन लाज ते होत न बाल के लोचन सौंहैं । ८४॥ संदेह-उदाहरण परचि' परै नहिं अरुन रँग, अमल अधरदल माँझ । कैधौं फली दुपहरी, कैधौं फली साँझ ॥८५॥ बानी को बसन, कैधौं बात के बिलास डोलै , कैधौं मुखचंद चारु-चंद्रिका प्रकास है; कबि 'मतिराम' कैधौं काम को सूजस कै ? पराग-पुंज प्रफुलित-सुमन सुबास है। नाक नथुनी के गजमोतिन की आभा कैधौं ? देहवंत प्रगटित हिए को हुलास है ; सीरे करिबे कों पियनैन घनसार कैधौं ? ___ बाल के बदन बिलसत मृदु हास है ॥ ८६ ॥ शुद्धापह्नति-लक्षण और को आरोप करि, साँच छपावत धर्म । शुद्धापन ति कहत हैं, जे प्रबीन कबिकर्म ॥ ८७ ॥ १ बरनि । छं० नं० ८५ दुपहरी=गुल दुपहरी । फूली साँझ =संध्या की लालिमा फैली है।

  • देखो रसराज उदाहरण परिहास ।