पृष्ठ:मतिराम-ग्रंथावली.djvu/४७९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
४७५
मतिराम-ग्रंथावली

मतिराम-सतसई ४७५ मधुप मोह मोहन तज्यो, यह स्यामनि की रीति । करो आपने काज कौ, तुम्हें जाति सी प्रीति ॥४२८।।* गंग नीर बिधु रुचि झलक, कहु मुसिक्यानि उदोति । कनक-भौन के दीप लौं, जगमगाति तन-जोति ॥४२९॥ खल बचनन की मधुरई, चाखि साँप निज स्रौन । रोम-रोम पुलकित भए, कहत मोद गहि मौन ॥४३०॥ मेरी सिख सीखे न सखि, मोसों उठे रिसाइ। सोयो चाहति नींद भरि, अंग अँगार बिछाइ ॥४३१॥x हरि की सुधि कों राधिका, चली अकेली भान । हँसत बीच हीं मिलि गए, बरबस कै सुख कौन ॥४३२॥+ मंत्रिनि के बस जो नृपति, सो न लहतु सुख साज। मनहिं बाँधि दग देत दुग", मन कुमार को राज ॥४३३।। दधि छिनाइ मोहन लियो, सखी सघन बन ठौर। बड़ो लाभ मन में गनौं, जौन कियौ कछु और ॥४३४।।- कहा भयो तजि जात है, मलिन मधुप दुख मानि । सुबरन बरन सुबास जुत, चंपक लहै न हानि ॥४३५॥ १ भाँति, २ मृदु, ३ मधुरता, ४ सीख, ५ सिखै, ६ सेज, ७ हैं, ८ मनहु मार, ९ छुढ़ाइ ।

  • दे० ललितललाम उदाहरण विकस्वर ।

+दे० ललितललाम उदाहरण प्रौढ़ोक्ति ।

  • दे० ललितललाम उदाहरण मिथ्याध्यवसित ।

xदे० ललितललाम उदाहरण ललित । +ते. ललितललाम उदाहरण प्रहर्षण । =दे० ललितललाम उदाहरण उल्लास । -दे० ललितललाम उदाहरण उल्लास । ६ दे० ललितललाम उदाहरण अवज्ञा ।