है, वहाँ की थाह लिए विना नहीं हटती। सबसे पहले वह हाथी की
उँचाई देखते हैं, पर बड़ डील-डौल से ही क्या होता है ? सो उनके
हाथी 'जैतवार' (जीतनेवाले) ठहरते हैं। पर बहुत-से हाथी जैतवार
होते हुए भी आतंक जमानेवाले नहीं होते। इस कारण मतिरामजी
के हाथियों की 'चिक्कार'-धुनि सुनकर दिग्गज काँपते (हलत) हुए
पाए जाते हैं । उपर्युक्त गुणों से युक्त होने पर भी हाथियों की बनावट
कुढंगी हो सकती है। वे अकेले काम के होने पर भी और हाथियों
के साथ, सेना में, काम न दे सकनेवाले हो सकते हैं; पर मति-
रामजी के हाथी तो 'सैन-सोभा के ललाम' हैं। पर क्या वे कृत्रिम
साज से हीन हैं ? नहीं, वे 'अभिराम जरकस-झूल झाँपे झलकत हैं'।
यह सब होने पर भी संभव है, वे समय-विशेष पर ही काम देने-
वाले हों, अन्य समय उनमें युद्ध के उपर्युक्त मस्ती न रहती हो ।सो
यह बात भी नहीं है। वे 'छहू ऋतु छके मद-जल छलकत हैं।' भाऊ
सिंहजी के ऐसे हाथियों को पाने के लिये कवि, चारण, ब्राह्मण (मंगन)
आदि ही उत्सुक नहीं रहते, बल्कि सैकड़ों हाथियों के अधिपति बड़े-
बड़े मनसबदारों के मन भी उनकी प्राप्ति के लिये ललकते रहते हैं ।
छंद इस प्रकार है-
"अंगनि उतंग, जंग जैतवार जोर जिन्हैं ,
चिक्करत दिक्करि हलत कलकत हैं;
कहै मतिराम', सन-सोभा के ललाम ,
अभिराम जरकस झूल झाँपे झलकत हैं।
सत्ता को सपूत राव भावसिंह रीझि देत ,
छहू ऋतु छके मद-जल छलकत हैं;
मंगन को कहा है, मतंगन के माँगिबे को ,
मनसबदारन के मन ललकत हैं।"
मतिरामजी का शब्द-समूह बहुत ही सुदृढ़ और हर ओर से