पृष्ठ:मध्यकालीन भारतीय संस्कृति.djvu/१०९

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( ५८ ) ब्राह्मण पतित हो जाता है। शनैः शनैः मांस खाने की प्रवृत्ति बढ़ती गई और ब्राह्मणों के एक भाग ने मांसभक्षण प्रारंभ कर दिया। क्षत्रिय और वैश्य भी मांस खाते थे। हरिण और भेड़ वकरी के मांस के अतिरिक्त प्रायः अन्य मांस निषिद्ध थे। कभी कभी मछली भी खाई जाती थी। प्याज और लहसुन का प्रयोग वर्जित था और उनके खानेवाले प्रायश्चित्त के भागी समझे जाते थे। उत्तरीय भारत की अपेक्षा दक्षिण में मांस का प्रचार बहुत कम था। चांडाल सब प्रकार के मांस खाते थे, इसलिये वे सबसे अलग रहते थे। मद्य-पान का प्रचार भी प्रायः नहीं था। द्विजों को तो शराब वेचने की भी आज्ञा नहीं थी। ब्राह्मण तो मद्य विलकुल नहीं पीते थे। अल मसऊदी ने राजाओं के विपय में लिखा है कि यदि कोई राजा मदिरा पी ले, तो वह राज्य करने के योग्य नहीं समझा जाता था, परंतु शनैः शनैः क्षत्रियों में मदिरा का प्रचार बढ़ता गया। अरबी यात्री सुलैमान लिखता है कि भारतीय शराब नहीं पीते । इसका कथन है कि जो राजा शराब पी ले, वह वास्तव में राजा नहीं है। आसपास में आपस के लड़ाई बखेड़े होते रहते हैं, तो वह राजा जो कि मतवाला हो, भला क्योंकर राज्य का प्रबंध कर सकता है। वात्स्यायन के कामसूत्र से मालूम होता है कि श्रीमंत नागरिक लोग बाग बगीचों में जाते और वहाँ शराव भी पीते थे। उस समय स्वच्छता का विचार अवश्य था, परंतु परस्पर का भोजन निषिद्ध न था। छूतछात का विचार वैष्णव धर्म के प्रचार के साथ पीछे से बढ़ा।

  • नाश्नीयाबाह्मणो मांसमनियुक्तः कथंचन ।

तो श्राद्ध नियुक्तो वा अनश्नन् पत्तति द्विजः ।। + सुलेमान सौदागर; पृ० ७८ (नागरीप्रचारिणी सभा द्वारा प्रकाशित)।