पृष्ठ:मध्यकालीन भारतीय संस्कृति.djvu/१४५

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प्रात्मा या . ( २ ) सत्त्व, रज तथा तम इन तीनों गुणों के योग से सृष्टि तथा उसके सव पदार्थो का विकास हुआ है। आत्मा ही पुरुप है। वह अकर्ता, साक्षी और प्रकृति से भिन्न है। सांख्य पुरुप अनुभवात्मक है। सांख्य के अनुसार परमात्मा ( ईश्वर ) कोई नहीं है। इस संप्रदायवाले २५ तत्त्व मानते हैं-पुरुप, प्रकृति, महत्तत्त्व (बुद्धि ), अहंकार, ग्यारह इंद्रियाँ, ( पाँच ज्ञानेंद्रियाँ, पाँच कर्मेद्रियाँ और मन ), पाँच गुण और पाँच महाभूत । सृष्टि को प्रकृति का परिणाम मानने के कारण इसे परि- णामवाद भी कहते हैं। सांख्य दर्शन भी अन्य दर्शनों की तरह बहुत प्राचीन है। बुद्ध के समय इसका बहुत अधिक प्रचार था। सांख्य दर्शन के प्रकृति- वादी होने के कारण ही बुद्ध ने भी ईश्वर की सत्ता की उपेक्षा की । वाचस्पति मिश्र ने ईश्वरकृष्ण की सांख्यकारिका पर 'सांख्यतत्त्वकौमुदी' नामक एक प्रामाणिक टोका लिखी। इस संप्रदाय के अधिक ग्रंथ नहीं मिलते, जो मिलते भी हैं वे हमारे निर्दिष्ट काल के नहीं । यह निश्चित है कि इस संप्रदाय का प्रचार ग्यारहवीं सदी में भी बहुत था। अरव के विद्वान अलवेरुनी ने अपने प्रसिद्ध ग्रंथ में सांख्य के विपय में बहुत कुछ लिखा है। उस समय तक भी ईश्वरकृष्ण की बनाई हुई 'सांख्यकारिका' का प्रचार बहुत था, जैसा कि अलबे. रूनी के इससे दिए हुए कई उद्धरणों से पता चलता है। उपनिपदों में मिलनेवाला सांख्य सेश्वर जान पड़ता है, परंतु ईश्वरकृष्ण और उसके बाद के लेखकों ने उसे निरीश्वर माना है। योग वह दर्शन है, जिसमें चित्त को एकाग्र करके ईश्वर में लीन करने का विधान है। योग दर्शन में आत्मा योग और जगत् के संबंध में सांख्य दर्शन के सिद्धांतों का ही प्रतिपादन किया गया है, परंतु पच्चीस तत्वों की जगह ,