पृष्ठ:मध्यकालीन भारतीय संस्कृति.djvu/२०८

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(१५१ ) इन संस्थाओं का भारत की जनता पर जो सबसे अधिक व्यापक प्रभाव पड़ा वह यह है कि वह ऊपर को राजकीय कार्यो से उदासीन रहने लगी। राज्य में चाहे कितने बड़े बड़े परिवर्तन हो जायें, परंतु पंचायतों के वैसे ही रहने से साधारण जनता में कोई परिवर्तन नहीं दीखता था । जन साधारण को परतंत्रता का कटु अनुभव कभी नहीं होता था इतने विशाल देश के भिन्न भिन्न राज्यों के लिये यह कठिन भी है कि वे गाँवों तक की सब बातों की तरफ ध्यान रख सके। भारतवर्ष में इतने परिवर्तन हुए, परंतु किसी ने पंचायतों को नष्ट करने का प्रयन नहीं किया । शहरों में म्यूनिसिपैलिटियाँ या नगर-सभाएं भी होती थीं, जो नगर का पूर्ण प्रबंध करती थीं। शासन और न्याय के नियम पर्याप्त कठोर घं। अंग छेद, देशनिर्वासन, जुर्माना और कारागार त्रादि दंड प्रचलित घे! हर्ष के जन्म पर कैदियों के छोड़े जाने का उल्लेख वाण ने किया है। याज्ञवल्क्य न कर कठोर एवं क्रूर दंडों के देने का वर्णन किया है। ब्रालगां को विशेष कटार दंड नहीं दिया जाता था। न्याय-विभाग के लिये एक विशंप अधि- कारी रहता था, जिसके नीचे भिन्न भिन्न प्रांतां और स्थानों में अन्य अधिकारी रहते थे । याज्ञवल्क्य ने न्याय के बहुत से नियमो का वर्णन किया है, जिससे पता लगता है कि उस समय की न्यायव्यवस्था कितनी उन्नत और पूर्ण थी। अभियोगों में लिखित श्रार मालिक साक्षियों की परीक्षा की जाती थी। आश्चर्य की बात यह है कि मय वार्ता में इतनी उन्नति होते हुए भी दिव्यसाक्षी ( Orleas) की हर प्रथा विद्यमान अवश्य धी, परंतु बहुत ही कम उपयोग में आतीची

  • दाटर्स श्रान युवनच्चांगल टूवल्स; जिल्द 1, Z• ६६ ।

वही; पृ० ६७२, बलबेस्नीज इंटिया; जि०, १.१८-६० । .