पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/२२९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

२२६ मनुस्मृति भाषानुवाद है। तव (अर्थात् अच्छे स्थान में और आप पवित्र होकर पढ़ें) [अनधार प्रकरण ममाम हुआ] ॥१२७॥ अमावस्या अष्टमी पौर्णमामी और चतुर्दशी इन तिथियों में पूर्वोक्त स्नातक द्विज ऋतु काल में भी भार्या के पाम न जावे ॥१२॥ न स्नानमाचरेद्भुक्त्वा नातुगे न महानिशि ! नासाभिः महाजनाऽविज्ञाते जन्नाशो ॥१२॥ देवनानां गुगेगक्षः म्नानकाचार्यगस्तथा । नाकामेकाभतरा बन गो दीनिस्य च||१३० भोजन करके, रोग मे मध्यरात्रिम, कपड़ों के साथ और जहां पानी गहग हो और विदित न हो ऐस जलाशय में स्नान न करे ॥१२९|| ढव = प्रसिद्ध विद्वाना और गुरु, राजा स्नातक आचार्य, कपिल, दीक्षित इन की आया इच्छा से न लांघे (इस से इन का अनादर होता है) ॥१३॥ 'मन्यदिनऽधराने या भाई भुक्त्वा च सामिपम । सन्ध्ययोरभयाश्चैव न सेवेत चतुप्पथम् ॥१३॥ दोपहर दिन आधी रात्रि और श्राद्धमे मांसभोजन करके और दोनो सन्ध्याओं में चौराहे पर अधिक काल तक न रहे । (१०९ । ११०॥ १११ । ११२ । ११३ । ११४ । आधा ११६ । ११७ । १२४ । १३१ । ये नाक प्रक्षिप्त है क्योंकि जल मे पढना किसी को इष्ट ही नही । मध्यरात्रि शयनार्थ है ही। विष्ठा मूत्र के त्याग समय सभी काम पूर्व निषिद्ध कर आये फिर भला वेदपाठ का निपेव कहां रह गया झूठे मुंह कहीं जाना तक निपिद्ध है। फिर वेदाध्ययन कैसा मांस और मृतक श्राद्धनिषिद्ध और वेदबाह्य ।