पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/३१०

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पंचमोऽध्याय ३०७ पाणिग्राहस्य साध्वी स्त्री बीना का मतस्य वा । पतिलोकममीप्सन्ती नाचरेकिञ्चिदनियम १५६|| पति की इच्छा करने वाली न्त्री जीवित या मृन पनि को अप्रिय काई कर्म न करें ।।१५ कामं तु क्षपयेई पुप्पमूलफलैः शुभै । न तु नामापि गृहीयान् पन्यो प्रतेपास्तु ॥१५७॥ आसीतामाखात्यान्ता नियमा प्रमचा । यो धर्म एकपल्लीना बक्षिन्ती नमनुत्तमम् ।।१५८॥ चाह नो न्त्री पवित्र पुष्प, मूल, फलों में देह का कश करदे परन्तु पनि के मरनं पर परपुरुप का (व्यभिचार की इन्छा में) नाम भी न लेवे ॥१५॥ (चाहे तो) नमायुक्त नियमवाली और पवित्र एक पतिधम की इच्छा करने वाली और मैथुन की इच्छा न करती हुई मरणपर्यन्त रहे ॥१५॥ अनेकानि महावाणि कुमारब्रह्मचारिणाम् । दिनं गतानि विप्राणामकन्वा कुलमतानम् ॥१५॥ मनभरि साचा स्त्री ब्रह्मचर्य व्यवस्थिता । स्वगं गच्छत्यपुत्रापि यथा ते प्रमचारिणः ॥१६०॥ कुमार ब्रह्मचारी बामणाके कई हजार समुमय बिना पुत्रोन्या- दन किय वर्ग का गये ।।१५।। इसी प्रकार मा यी स्त्री पति के मरने पर प्रभाव में रहे तो अपुत्रा मी स्वर्ग को जाती है जैसे वे ब्रह्मचारी ॥१६॥ अमलामाया तु स्त्री भतासान।