पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/३११

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३०८ मनुस्मृतिभाषानुबाद सेह निन्द्रामवाप्नोति पतिलोकाच हीयते ॥१६१ । नान्योत्पना प्रजास्तीह न चाप्यन्यपरिग्रहे । न द्वितीयश्च साध्वीनां क्वचिद्धपिदिश्यते॥१६२॥ पुत्र के लाभ से जो ग्त्री परपुरुप से सम्बन्ध करती है यह यहां निन्दा.को पाती है और पतिलाक से भी वञ्चित रहती है। (मेधानिथि ने परलोकान् पार माना है) ॥१६१|| सरे पुरुष से (व्यभिचार की) उत्पन्न हुई सन्तान शास्त्र से उस की नहीं है और न दूसरी म्बी में उत्पन्न करन वाले की है। और न कहीं साध्वी स्त्रियो का दूसरा (विवाहित) पति कहा है ।।१६२|| पति हित्वापकष्टं स्वमुत्कृष्टं या निषेवते । निन्द्यैव सा भवेल्लोक परपूर्वेति चोच्यते ॥१६॥ व्यभिचागत मर्च स्त्री लोकेप्राप्नोति निन्धवाम् । भृगालयोनि प्राप्नोति पापरोगैश्व पीड्यते ॥१६॥ जो अपने न्यूनगुण पति को छोडकर श्रेष्ठ का सेवन करती है वह लोगो मे निन्दनीया होती है और उसको दो पति की स्त्री है, ऐसा कहते हैं ।।१६।। परपुरुप के भोग से स्त्री लोगो मे निन्दा और मरने पर न्यार की योनि को प्राप्त होती है और कुष्ठादि पापरोगो से पीडित होती है ॥१६॥ पति यानाचिति मनो वाग्देहसंयता | सामर्तु लोकम फोति सद्धिः साध्वीतिचोच्यते॥१६॥ अनेन नारीवृचेन मनोवाग्देह संयता । इहाग्रयां कीतिमाप्नोति पतिनोक परन च ॥१६६॥' 4