पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/३१९

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मनुस्मृति भाषानुवाद उपस्पृशंस्त्रिपवणं पितन देवांश्च तर्पयेत् । तपश्चरंथोग्रतरं शोषयेद्द हमात्मनः ॥२४॥ प्रीम में पञ्चाग्निसाधन करे (चारों ओर अग्नि रक्खे, ऊपर से सूर्य) और वर्षाकाल में बादल का आश्रय करे और हेमन्त में भीगे कपड़ों से रहे। इस प्रकार कम से (सहिष्णता) तपको बढावे नारशासिकाल नान करके देयों और पितरों का तर्पण करे और उपतर नर करकं अपने शरीर का सुखावे ||२४|| अग्नीनास्मान नैतानान्ममारोप्य यथाविधि । अनग्निरनिकेतः स्यान्मुनिमूलफलाशनः ॥२५।। अप्रयत्नः सुखार्थषु ब्रह्मचारी धराशयः । शरणेष्वममश्चैत्र वृक्षमूलनिकेननः ॥२६॥ अग्नियों का (वैखानस शास्त्र के) विधान से आत्मा मे समा- रोपिन करके मुनित्रत वाला फल मूल का भोजन किया करे । अग्नि और निकेत-स्थान भी न रकाचे ॥२५॥ सुख के लिये प्रयत्न न करे और स्त्री मभोग रहित भूमि पर सोने वाला और निवासस्थानोंमें ममत्वरहित वृक्ष के नीचे वास करे |R६|| वापसेष्वेव विप्र यात्रिक मैक्षपाहरेत् । गृहमेधिषु चान्येषु द्विजेपु वनवासिषु ॥२७॥ ग्रामादाहत्य वास्नीयादष्टौ ग्रासान बने दसन् । प्रतिगृह्य पुटेनैव पाणिना शकशेन वा ॥२८|| वानप्रस्थाश्रम वाले विनों से प्राण बचाने भर ही.मिक्षा लेलेवे उसके अभाव मे अन्य पनवासी गृहस्थ द्विजोसे लेलेवे ॥२७॥ माम