पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/३३४

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पाध्याय { अधीत्य चानु वर्तन्ते ते यान्ति परमां गतिम्।।६३॥ दशलक्षणकं . धर्ममनुतिष्ठन् समाहितः । वेदान्तं विधिवच्छत्वा संन्यसेदनृणोद्विजः।।४।। जो चित्र धर्म के दश लक्षणों को पढते हैं और पढ़कर उसके अनुसार चलते हैं ये मोक्ष को प्राप्त होते हैं ॥१३॥ (ऋपि पितर देवों के ऋणों से मुक्त द्विज म्बन्धचिन होकर दश लक्षण वाले धर्म को करता हुआ विधि से वेदान्त का श्रवण करकं मन्याम धारण करे रक्षा संन्यस्य सर्वकर्माणि कर्मदोषानपानुदन् । नियता वेदमभ्यस्य पुत्रैश्वर्यं सुखं वसेत् ।।६।। संपूर्ण (गृहस्थ के) कमों को छोड़कर और (बिना जाने जीवो के नाशजनित) पापोका (प्राणायामोसे) नष्ट करता हुवा जितेन्द्रिय होकर बेद का अभ्यास करके पुत्र के ऐश्वर्य में (त्ति की चिन्ता से रहित) सुख पूर्वक निवास करे ।। (९५ वें से आगे एक पुस्तक में यह श्लोक अधिक है:- [मंन्यसेत्सर्वकर्माणि वेदमेकं न संन्यसेत् । वेद पंन्यामतः शूद्रस्तस्माद्वदं न मन्यसेत्।।] सब काम छोड़ दे परन्तु एक वेद को न छाडे, क्योंकि वेदके छोड़ने से शुद्ध हो जाता है इस लिये वेड को न छोडे । इसी आशयका श्लोक पाठभइसे अन्य दो पुस्तमि भी मिलता है कि संन्यसेत्सर्वकर्माणि वेदं तु न परित्यजेत् । परित्यागाद्धि वेदस्य शद्रतामनुगच्छति ।।६।। -