पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/४१८

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अश्माऽध्याय जान पड़ती है और प्रायः रोगादि के हेतु बहुत प्राचीन होते हैं और जाने नहीं जा सकते, उम दशा में बड़ा अन्याय होगा । तथा वैद्यादि के भरोसे बड़ा कार्य जा पोगा और अग्नि लगने के हेतु जानने में तथा पुत्रादि की मृत्युमा हेतु जानने मे असेय कठिनाई हैं और फिर भी पूरा निश्चय होना कठिन ही है। इत्यादि कारणों से हमारी सम्मति में तो राजद्वारादि लौकिक निर्णयों में देवानुमान उचित नहीं है ) ॥१०॥ असाक्ष्यकेषु त्वर्थेषु मिया विवदमानयोः । अविन्दंतमतः सत्यं शपथेनापि लम्मयेत् ॥१०६/ "महर्षिभिश्च देवश्च कार्यार्थ शपथाः कृताः । वसिष्ठश्चापि शपथं शेपे वै यवने नृपे ॥११०॥" विना गवाह के मुसहमो मे श्रामस में झगड़े वाले दोनों के सत्य वृत्तान्त बात न होने पर शाथ (हलक) से भी निर्णय कर लेवे ||१०|| क्योकि महर्षि और देवतो ने कार्य के लिये 'शपर्थे की, वसिष्ठ जी ने भी यवन राजा के सामने शपथ किया था। (कहां वसिष्ठ ! कहां यवन और कहां मनु । यह सब पश्चात् की रचना स्पष्ट है) ॥११॥ न वृथा शपथं कुर्यात्स्वल्पे प्यर्थे नरो बुधः । प्रथा हि शपथं कुर्यात्नत्य चेह च नश्यति ।१११॥ कामिनीपु विवाहेगु गयां मध्ये तयेन्धने । ब्राह्मणाभ्युपपत्तौ च शपथे नास्ति पातकम् ||११२।। थोड़े अर्थ में भी पण्डित मिथ्या शपथ न करें क्योकि वृथा शपथ करने वाला इस लोक तथा परलोक में नाशक प्राप्त होता है ॥१११॥ सुरत लाभको कामिनीके विषयमे, विवाहोमें, गौवोंके चारे