पृष्ठ:मरी-खाली की हाय.djvu/१०८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

पर बाजे बजा रहे थे। बरात भोजन कर रही थी, लोग दौड़- धूप कर रहे थे। कृष्णा अब भी उस श्रागन्तुक की प्रतीक्षा में थी। एक दुबला-पतला युवक आया और इधर-उधर देखघर में घुस गया। उसका वेश साधारण था । उसने गृहपति को पहचान कर कहा-“लालाजी मुझे आप से कुछ कहना है ?' "देवीसिंह आज आवेगा लाला को भी उसकी प्रतीक्षा थी। उन्होंने सतर्क दृष्टि से युवक को देखकर कहा-"तुम कौन हो?" "मैं देवी सिंह का सन्देश लाया हूँ" "वे कहाँ हैं?" "यह में नहीं बता सकता, कृपा कर क्षण भर के लिए कृष्णा बहिन से मेरी मुलाकात करा दीजिये। लाला जी ने चुपचाप उसे गृहणी के पास पहुँचा दिया । कृष्णा ने उसे देखा और कहा-"क्या वे न पा सकेंगे ?" "नहीं बहिन, यह सम्भव ही न रहा । उन्होंने क्षमा माँगी है और आसीस दी है।" "वे हैं कहाँ ?" वालिका आशंका से पीली पड़ गयी। "निकट ही, पर देख न सकोगी ?" "क्या कैद हो गये ?"