पृष्ठ:मरी-खाली की हाय.djvu/१२

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( ३ ) देते थे। जब मैं माता की स्नेहमयी छाती में चिपक कर दुग्धपान करता तो वह एक गीत गाती थी। उसका अभिप्राय शायद यही था कि यह दूध तुम्हारा है। और पिता जब मधुर २ फल नाते और छील कर खिलाते तो किस्से सुनाते थे। उनका अभिप्राय भी शायद यही था कि ये फल तुम्हारे हैं। मेरे अच्छे स्वदेश ! बताओ तो ! क्या वह दूध तुम्हारा था ? क्या वे फल तुम्हारे थे ? वह मिठास, वह स्वाद, वह प्राणोत्तेजक आनन्द क्या तुम्हारा था ? सच कहना ! ऐसी मधर सुघड़ाई तुम्हारे पास कहाँ से आई ? मेरे माता पिता अब नहीं हैं पर मैं अपने को अनाथ क्यों कहूँ ! जब कि तुम मेरे पूज्य, मुझे गोद में लिये हुए हो । तुम मेरे, मेरे पिता के, उनके भी पिता के, उनके भी पिता के अनन्त काल से पूज्य पूर्वज हो, सदा से रहे हो, सदा रहोगे। ऐ मेरे स्वदेश ! अब तक तुम कहाँ छिपे थे छिपे ही छिपे तुम ने चुप चाप मेरे लिये कितना कष्ट सहा ? तुम ने देखा बालक भूख के मारे छटपटा रहा है । तुम से न रहा गया । तुमने कड़ी धूप पीठ पर सही। फिर नंगी छाती किये मूसलाधार वर्षा में खड़े भीगते रहे । दाँतों में अँगुली दे कर पीठ पर हल चलवाया। इसके बाद पौध उगी। और तुमने अपना ओज पिला २ कर पाला। जब पक गये तो मैं उछलता हुआ गया। रस भरे पके फल ले