पृष्ठ:मरी-खाली की हाय.djvu/१५३

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( १४४ ) विजखता रहा । उसने आघातों से शरीर को क्षत विक्षत कर लिया। इसी भाँति मर्म वेदना में उसकी रात्रि व्यतीत हुई। दिन आया और गया । खाना पीना भी उस ने छोड़ दिया। वह सैंकड़ों बार दीवार के पास गया टिक टिक किया पर कुछ भी उत्तर न प्राप्त हुआ। अब वह दीवार से सिर टकराने और जोर २ से चिल्लाने लगा। तीन दिन बीत गये। हरसरन चुप चाप धरती पर पड़ा था शब्द हुआ "टिक टिक टिक" वह भूखा प्यासा अधमरा हरसरन, सिंह की भांति , झपटा ।उसने तनिक उत्तेजित स्वर में कहा। "तुम हो १८ नम्बर ?" "हाँ, ईश्वर का धन्यवाद है तुम यहीं हो। क्या तुम्हें भी कोई सजा मिली ?" "नहीं, तुम कहाँ थे ? "खड़ी बेड़ी पर लटका दिया गया था।" "क्यों ?" "तुमसे बातें करने और ख़बर मंगाने के अपराध में।" "पर तुम झूठे हो।" अभागे भाई, मालूम होता है तुम्हारा दिमाग खराब हो गया है। "तब सबूत दो ।