पृष्ठ:मरी-खाली की हाय.djvu/१७

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मैं बेशक मर जाता। पर तुम तो बच जाते। मेरा जीवन ही क्या है ! किसी को जिलाना एक ओर रहा, मैं स्वय भी कुछ नहीं जी रहा हूँ। तुम यदि जीवित रहते तो न जाने कितने अछूत, कितने अनाथ, कितनी विधवाएं, जो मनुष्य हो कर भी मनुष्यों के अधिकारों से वंचित किये गये हैं और जो तुम्हें अपना गौरवान्वित पिता कहते हैं और सचमुच तुम्हारे पुत्र हैं । पर ! पर वे कौवे और कुत्तों की तरह ! उन से भी निकृष्ट जीवन व्यतीत कर रहे हैं, भरी जवानी में मर रहे हैं, आधे दिन जीते हैं वे भी काटे नहीं कटते। ये सब क्या ऐसे रहते हैं ? हसते, खेलते और दीर्घजीवी होते ? अाह ! वह दिन कैसा सुन्दर होता! प्यारे ! गया सो तो गया। अब बोलो तुम्हारे लिये क्या करू ? यह सच है कि मुझ में शक्ति नहीं है । पर मेरे हृदय को मुझ से कौन छीन सकता है ? अच्छा क्या मेरे रक्त से तुम्हारी सूखी मुजाएँ पुष्ट हो सकती हैं ? अथवा मेरे प्राणदान से तुम्हारा प्राण जाग सकता है ? मैं तुम्हारे लिये उत्सर्ग हूँ, मेरा मन उत्सर्ग है। तन उत्सर्ग है, लोक और परलोक ,भी सत्सर्ग है । पर वह क्या तुम्हारे लिये तनिक भी उपयोगी होगा ? पड़े २ तुम्हारी पाचन शक्ति नष्ट सी हो गयी है। अब तुम्हारी सारी क्रियाएँ बेसमय होती है। बताभो तुम्हारी बह