पृष्ठ:मरी-खाली की हाय.djvu/१७७

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अब तुम उठो,-ठो श्रो-भारत की कुलवधू पक्षी जाग गये ,वे सोहनी गारहे हैं । चमेली की कलियाँ बिल गई', गायें अपने बच्चों को दूध पिला रही हैं, मातायें स्नेह बखेर रही हैं, देखो, यह संसार कितना सुन्दर हो रहा है, एक बार आँख खोल कर देखो, हम चिन्तित हो कर तुम्हारी ही ओर देख रहे हैं। अरे, यह कैसी चिर निद्रा है ? समुद्र उद्विग्न होरहा, है उसके इस पार से उसपार तक दीर्घनिश्वासों की छाया डोल रही है, मानवकुल अकुला उठा-तुम उठती नहीं, क्या तुम कभी न उठोगी ? कभी नहीं, ? उस वेदनामय आनन्द के जीवन में एक बार भी नहीं ? क्यों ? ऐसी क्या नाराजी की बात हुई भाभी, कमला! किससे तुम रूठ गई ? हमसे ? जिन्हों ने तुम्हें सदैव कारागर में रहने दिया-तुम वहाँ बन्दिनी रहीं और हम हँसते रहे-खाते पीते और जीते रहे । या अपने पति पर, जो तुम्हारी रुग्ण शैया की पाटी पर न बैठ मां के ध्यान में मग्न रहा-उस अनन्त शस्य श्यामला मां के ध्यान में- जो जगत के पद-धूल में लोटी पड़ी थी । नहीं, तुम रूठने न पाओगी, तुम्हें जगना होगा । जैसे पीठ दिखा कर गई थीं, वैसे ही आकर मुह दिखाना होगा, हम करोड़ों तुम्हारे परिजन एक बार तुम्हें वेदना की कँटकमयी-शैया पर हँसते हुये सोते देख, साहस का बीज । मन में